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"महराजिन बुआ / हरीशचन्द्र पाण्डे" के अवतरणों में अंतर

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04:31, 5 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

माता-पिता-पुरोहित की त्रयी ने मिलकर
नाम तो दिया ही था उसे एक
पर लोग उसे महाराजिन बुआ कहकर पुकारते हैं

मिलाई तो गयी होगी उसकी भी कुंडली कभी
कुंडली ठीक नहीं बनी होगी
या बाँची नहीं गयी होगी ठीक से
वरना उसका वैधव्य दिख जाता दूर से ही
विकट ग्रहों का शमन हो गया होता

पर सारे विश्वासों के बीच वह विधवा हुई
अब मरघट की स्वामिनी है वह

औरतें हैं कि शवों की विदाई पर
घर की चौहद्दी में पछाड़ मार-मारकर रो रही हैं
वह है कि घाट पर सारे शवों की आमद स्वीकार रही है

चिताओं के बीच ऐसे टहल रही है
जैसे खिले पताश वन में विचर रही हो

एक औरत की तरह उसके भी आँचल में दूध था
और आँखों में भरपूर पानी
अबला थी
और भी अबला हो गयी होती विधवा बनकर
चाहती तो काशी की विधवाओं में बदली जाती
या चली जाती वृन्दावन
पर वह चल पड़ी श्मशान की ओर

काँटेदार तिमूर लकड़ी की ठसक लिये घूम रही है घाट पर

हाथ से बुने मोज़ों के ऊपर कपड़े के जूते डाल रखे हैं उसने
मोटे ऊन की कनटोप है
मुँह में गिलौरी दबाये
जलती चिताओं की बग़ल से निकलती और राख हो गयी
चिताओं को लाँघती
एक से दूसरी चिता
दूसरी से तीसरी
तीसरी से चौथी
मुखाग्नि दिलवाती
कपाल क्रिया करवाती
घूम रही है वह

ख़ुद अपने मोक्ष के लिए छटपटाती एक नदी के तट को
तर्पणों का समुद्र सौंप रही है

पंडों के शहर में
मर्दों के पेशे को
मर्दों से छीनकर
जबड़ें में शिकार दबाये-सी घूम रही है वह

अभी-अभी
घाट पर भी मर्द बने एक आदमी को
उसी की गुप्तांग भाषा में लथेड़ा है उसने

ठसकवालों से ठसक से वसूल रही है दाहकर्म का मेहनताना
रिक्शा-ट्राली में लाये शवों के लिए तारनहार हो रही है

यहीं जहाँ महाराजिन के आधिपत्य वाले घाट की सीमा शुरू होती है
उसके ठीक पहले समाप्त होती है ‘साहित्यकार संसद’ की सीमा
यहीं पर चीन्हा गया होगा कभी महीयसी द्वारा
असीम और सीमा का भ््राम
यहीं उफनती नदी के सामने गाया गया होगा कभी
महाप्राण द्वारा बादल राग
यहीं कविता ने देखा होगा एक युगान्त...

तट से दूर उभर आये रेतीले टापू के एकान्त में सरपती बाड़ के पीछे
रसीली कल्पनाओं के उद्यम में सहभागी एक ट्रांजिस्टर में
मेघ मल्हार बज रहा है
महराजिन सशंकित हो ताकने लगी है आकाश
अधजली चिताएँ उसे सोने नहीं देतीं रात भर
उसकी तो पसन्द है दीपक राग

उसने अभी-अभी मुखाग्नि दिलवायी है एक विधवा की चिता को
एक विधवा, दूसरी विधवा के शव को जलवाते हुए
अतीत में दबीं अनन्त विधवाओं की
अयाचित चिताओं की चीखें सुन रही है

घाट के ढलान पर
उम्र की ढलान लिये
दिन भर सूर्य की आँखों में आँखें डाल खड़ी है
मनु की प्रपौत्री वह
असूर्यंपश्या

तीर्थराज प्रयाग को जोड़नेवाले
एक दीर्घ पुल
और परम्परा के तले...।