भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अप्प दीपो भव / शुद्धोदन 5 / कुमार रवींद्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

21:19, 5 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

और बुद्धवाणी है गूँज रही
दूर कहीं
राजा ने उसे सुना

'दुक्खों का अंत नहीं
रोज़-रोज़
वही-वही होते हैं
घिरे हुए हम उनसे
धीरज-मर्यादा सब खोते हैं

 'पानी के बुलबुले
उमगते हैं-मरते हैं -
सब मिथ्या - क्यों, भन्ते, कभी गुना

 
'चक्रवर्ति होने की इच्छा से
कितना है रक्त बहा
क्या मिला
तृषा कभी शान्त नहीं होती है
रटती है -
और पिला - और पिला

'फँसे सभी तृष्णा के जाल में
सच मानो
हमने ही उसे बुना

'जात-नात-कुल सब हैं
मानव के रचे हुए आडम्बर
उपजे हैं इनसे ही
मोह सभी
साँसों के सारे डर

'आवुस, है यही सत्य, सोचो तो'
गहराया मौन फिर
राजा ने सिर धुना