"योगी भेष / प्रेम प्रगास / धरनीदास" के अवतरणों में अंतर
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चौपाई:-
इहै मंत्र सबके मन माना। पहिरे योगी को परिधाना॥
जो जो भेष कुँअर वर लीन्हा। सोइ सरूप सकल तन कीन्हा॥
सब सुन्दर और सब सुर ज्ञानी। प्रेम मगन मन अमृत वानी॥
चढ़ी विभूति सकल तन शोभा। जगत रूप योगी तन लोभा॥
वीणा शंख मृदंग वजावहिं। भेष धरे जनु इन्द्र लजावहिं॥
विश्राम:-
जो संगति कछु चाहिये, सो सब लीन बनाय।
अवसर सवै सम्पति घनी, तेहि क्षण दीन्ह उडाय॥90॥
चौपाई:-
संगति मुरति एक से चारी। चले अनांदित भेष संवारी॥
सब मिलि हर्षित हरिगुन गावहिं। खेलहिं हंसहिं रहहिं मन भावहिं॥
पूजा पाठ करहिं वहु भांती॥...
हृदया धरि धरनीश्वर ध्याना। धरनी दास वहुत मन माना॥
सांझ सकारे आरति होई। दरश परश साधुन कर होई॥
विश्राम:-
हरि सुमिरत गावत पढत, वोलत सहज सुझाव॥
यहि प्रकार दिन खांडत, पर्वत गांवहि गांव॥91॥