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चौपाई:-
राजकुंअर सव सुनि मनमाना। उठि वोले सुनु महथ सुजाना॥
जो तुम विधि पर निश्चय राखो। कपट वचन कस हमसे भाखो॥
अब विवेक अस करहु विचारा। सो वर वरै जो करु कर्त्तारा॥
सब मिलि इहै मंत्र ठहराई। तेहि क्षण यज्ञ-स्थान लिपाई॥
मोतिनकी लर चौक पुराई। शिव प्रतिमा तंह आनि धराई॥
विश्राम:-
सो न थार मुक्तावली, यज्ञ रचो जगदीश।
शिवहिं करहिं परदच्छिना, और पुनि नावहिं शीश॥187॥
सोरठ:-
शिव प्रतिमा जेहि देय, कंठमाल मुक्तावली
राजकुंअरि सो लेय, सवमिलि यहि सम्मति करी॥
चौपाई:-
अगुमन राजकुंअर सब गयऊ। एक एक वार प्रदक्षिण कयऊ॥
नावहिं शीश वहुत गलतानी। परि हरि प्रभुता मान गुमानी॥
मुक्ता माल काहु नहि पाऊ। तबहिं कुमार अखारे आऊ॥
सुमिरो एकाकार निरंजन। विघ्न हरन जनके दुख भंजन॥
विश्राम:-
कर्त्ता एक पुरुष तुम, भरता है सब जीव।
तुमरे विनु कबहू नहीं, सब जीवन को शीव॥188॥
चौपाई:-
मनमोहन मन निश्चय आनी। कर्त्ताराम उचरयो वानी॥
करी प्रदक्षिण कियो प्रणाम। सकल लोग देखत तेहि ठामू॥
गुरु के चरतहि चितवन कीन्हा। भाव संयुक्त दंडवत कीन्हा॥
तेहि क्षण माल परो गर आई। दियो सकल मिलि तबल बजाई॥
जय जय जय सब लोग उचारा। हर्षित नृपति सकल परिवारा॥
विश्राम:-
जगदीश्वर जय-माल दिहु, मलिन भये अरिराज।
राज तिलक तब सरेऊ, वहु विधि वाजन वाज॥189॥