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धरनी जनि कोऊ करै, काया को हंकार।
राखे रहै न काहु के, जात न लागै बार॥1॥
चीरा हीरा पटकते, चौवा चुवत गुलाब।
धरनी सो तन तनिक में, होता खाक खराब॥2॥
चोवा चन्दन लेपही, सदा सुगन्ध नहाय।
धरनी सो तन धरनि में, परो विगन्ध बसाय॥3॥
पर्दहिं रानी जोहती, करती सकल सिंगार।
धरनी सो बाहर परी, सूकन श्वान अहार॥4॥
काया को कछु काज नहि, कियो भक्ति के हेत।
धरनी समुझि परै नहीं, मारि 2 जाय अचेत॥5॥
पाँच-तत्त्व-काया कियो, तामे गैबी पुर्ख।
धरनी काया देखि के, भूलै जो सो मूर्ख॥6॥
जिमि पानी मँलोन है, कर-अँजुली है पानि।
धरनी देही देखि के, गर्व न कीजै जानि॥7॥
काया भक्ति कियो नहीं, माया को विस्तार।
धरनी सो लादू भयो, पशुवा को अवतार॥8॥
भीतर पांच पचीस जंत, बाहर कुल परिवार
धरनी इनके फन्दने, बँै सो धनि अवतार॥9॥