"सिवाय (प्रकीर्ण) / शब्द प्रकाश / धरनीदास" के अवतरणों में अंतर
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नाथ नाथके हाथ है, हाँके फिरत अहार।
धरनी ताँह 2 जाइये, जहं 2 अंश हमार॥1॥
निर्गुण को गुण सकल है, अवगुण धरिये काहि।
परालव्धि जब जाहिसँ, धरनी मिलिये ताहि॥2॥
धरनी मन-वच कर्मना, सुरति करै जो जाहि।
फेर फार कछुवो नहीं, अवशे परसै ताहि॥3॥
अब लगि जो प्रभु रचि रख्ये, भुक्त-मान भौ सोय।
आगे होइ धरनी कहै, आजु न प्रगटा होय॥4॥
धरनी कहि आशीषिये, और दीजै केहि शाप।
दूजा कतहुँ न देखिये, सब घट आपै आप॥5॥
इन्द्र कितेको चलि गये, देव-इन्दु केत जाँहि।
धरनी चरण शरण लियो, अनतै कहाँ समाहि॥6॥
विमल विनोदानन्दजी, देह तजी तन जानि।
धरनी के घट भीतरे, प्रगट विराजे आनि॥7॥
धरनी कथनी लोक की, ज्योँ गीदर को ज्ञान।
आ गम भाषै और को, आप परै मुख श्वान॥8॥
धरनी सो पण्डित नही, पढ़ि गुनि कथै बनाय।
पण्डित ताहि सराहिये, पढ़ा विसरि सब जाय॥9॥
धरनी कागद फारिके, कलम पँवारो दूर।
कया-कचहरी बैठिके, बैठे रहो हजूर॥10॥
धरनी गायन जानतो, जब शंसय संसार।
पायो संगीत साधुकी, गावो बहुत प्रकार॥11॥
धरनी जँह लगि देखिये, तँह ले सबै भिखारि।
दाता केवल रामजी, देत न मानै हारि॥12॥
चौरी करै न चाकरी, नहि खेती व्यापार।
धरनी भिक्षा सहजकी, मिलै सहज परकार॥13॥
धरनी मन मिलनो कहा, तनक माँह विलगाय।
मनको मिलन सराहिये, एक एक होइ जाय॥14॥
धरनी कोउ निन्दा करै, तू निन्दा जनि भाखू।
जो कछू कहै सो आपको, यही जानि जिय राखु॥15॥
धरनी कोउ निन्दा करै, तू अस्तुति करु ताहि।
तुरत तमाशा देखिये, यही साधु-मत आहि॥16॥
नवरात्री कलश धरत, दशेयँ देत उठाय।
धरनी सो कलशा धरो, जन्म मात्र नहि जाय॥17॥
धरनी नयना निरखि के, हृदया कियो विचार।
नाता काहूते नहीँ, संगति है दिन चार॥18॥
धरनी सब घर जो किये, गढ़ घवराहर पूर।
जोँ घरमें घर नहि कियो, सहजै सब घर दूर॥19॥
धरनी खेती भक्तिकी उपजे होत निहाल।
खाय खरचि निवरै नहीं, परै न दुःख दुकाल॥20॥
शब्द सार सन्तन दियो, स्वामि सेइ सुख पाव।
धरनी वा प्रभु सेवते, अब जिय रहो कि जोव॥21॥
तीन लोकपर स्वर्ग है, ता ऊपर सुर-धाम।
धरनी तापर साधु है, ता ऊपर है राम॥22॥
वाण-प्रस्थ गिरहस्त है, ब्रह्मचर्य सन्यास।
सब ऊपर हरि-भक्ति है, धरनी गहु विश्वास॥23॥
धरनी यह मन जम्बुका, बहुत कुभोजन खात।
साधु संग मृग होइ रहो, शब्द सुगंध बसात॥24॥
धरनी जो अभि-अन्तरे, सो जानत है राम।
हाथी को हंकार लोँ, चींटीको चिनगार॥25॥
मूल मंत्र मधि एक मधु, धरनी अमृत सार।
मन माखी लुव्धो तहाँ, कौन छोड़ावन हार॥26॥
एक 2 सब कोइ करै, भेदी विरलै कोय।
कह धरनी कहँवा बसै, कौन सरूपे होय॥27॥
एक बसै सब जीव मेँ, सब एकहि मोँ आहि।
गुरु गम परिचय जेहि भयो, धरनी वंदै ताहि॥28॥
जब लगि पिय परदेशिया, बहुत बढो जिरयो द्वन्द।
नेह समुझि दाया की, धरनी धनि आनन्द॥29॥
दियो दया करि जिन तिलक, कियो श्याम तन लाल।
धरनी को विश्वास है, बड़ो दयाल दयाल॥30॥
जपसी तपसी राजसी, पण्डित कवी तबीब।
धरनी देखो धरनि में, सबते बड़ो करीब॥31॥
सबते बड़ो गरीब है, बडो गरीव-नेवाज।
धरनी जाके मौजते, बहुत गरीबा राज॥32॥
धरनी एकै गाँव है, टोक 2 बस लोग
धरनी चलि फिरि देखना, बिनु शंसय बिनु सोग॥33॥
धरनी एकै वानिया, किये अनंद दुकान।
जो आपुहि जँहडाइहै, सो हमरे मन मान॥34॥
सुरति वास वैकुण्ठ नहिँ, धरनी नहीँ अकास।
रामानन्द कबीर जँह पीपा और रैदास॥35॥
धरनी तेहि वरनी नहीं, महिमण्डलको राव।
सो सपूत यहि जगत में, जो हरि-भक्ति दृढ़ाव॥36॥
मन्जा कुष्टी कोटि जो, गाडे गंगा माँहि।
धरनी पावन गंगजल, होत अपावन नाँहि॥37॥
देह द्वारिका भीतरै, राजत है रनछोर।
धरनी अनतहिँ जाइये, यहाँ होइ जो और॥38॥
जगन्नाथ जगमग करेँ, हरिजन हीके माँहि।
धरनी नर परिचय-बिना, पुरुषोत्तम पुर जाँहि॥39॥
धरनी कहै पुकारिके, सुनो सकल संसार।
जन्म 2 के आँधरा, अबके भयो डिठार॥40॥
धरनी बाहर धूँधरो, भीतर ऊगो चन्द।
भवो भलोको अति भलो, है मन्दे को मन्द॥41॥
धरनी नव दश द्वारलों, खबरदार नर लोय।
गुप्तद्वार एकादशा, जानै विरला कोय॥42॥
धरनी जँह 2 भक्तजन, साधु चलहिँ तेहि गैल।
बिनु वैष्णव को गाँव ज्याँ, बिना पोँछिको बैल॥43॥
कनखी मटकी मेटिया, धरनी छुटी कुवानि।
खुली किवारी लगि गई, रहे तत्त्व पहियानि॥44॥
उदधि नदी पोखर कुआँ, धरनी वरनि न जाय।
जब लग वरिस अकास नहि, घिरि घमंड घहराय॥45॥
धरती नारि-स्वरूप है, स्वामि स्वरूप अकास।
सहज प्रेम को सींचनो, सदा बसै जनु पास॥46॥
परमारथ के पंथ चढ़ि, मया लगावै व्याज।
धरनी तेहि समुझावते, आपुहि मरिये लाज॥47॥
परमारथ के पन्थ चढ़ि, वहुरि करै व्यंवहार।
धरनी देखो धरनिमें, ताससों कौन गँवार॥48॥
पूर्व पछिम दक्षिण उदधि, उत्तर बद्री जाँहि।
धरनी मंडल बनि रहो, हरि-जन खेलँहि खाँहि॥49॥
जगन्नाथ रणछोरजी, रमानाथ बद्रीश।
धरनी हरिजन हर घरी, लिये फिरत हैँ शीश॥50॥
रामानँद निज वाँस ज्यों, शाख सघन चहुँ ओर।
धरनी वाही मूलते, वहुत भये भुइँफोर॥51॥
राम 2 सुमिरन जहाँ, जीव-दया सत्संग।
धरनी सदा अन्हात जनु, सात बार जल गंग॥52॥
विष लगे दुनिया मरै, अमत लागे साधु।
धरनी ऐसो जानिहे, जाकी मता अगाध॥53॥
और देवको सेवना, लच्छ निकट जनि जाहु।
धरनी रामके नाम पर, भीख माँगि कर खाहु॥54॥
आये हैं हरिद्वार ते, जेँहैँ फिरि हरि-द्वार।
धरनी कछु दिन देखना, प्रेम भाव संसार॥55॥
सुरति मुरति सोँ लाइये, जो मूरति है मूल।
धरनी देखि न भूलिये, लघु दीरघ अस्थूल॥56॥
धरनी आपुन स्वरथे, कछू न कहिये काउ।
परमारथ के कारने, परके धरिये पाव॥57॥
मद मिमिआई कस्तुरी, डूमर चूना सीप।
धरनी सो नर खातु हैं, जाहि न ज्ञान समीप॥58॥
निर्दाये का रूखरा, निर्दाये की घास।
निर्दाये का बोलना, धरनी नौ खँड दास॥59॥
संसारी सतसालतो, धरनी धरिये दूर।
साधु संगति मिलि पाइये, रमावटी मंडूर॥60॥
आवनि हारे, आवहीँ, जानिहार सो जाहि।
धरनी हरि 2 सुमिरना, हर्ष शोक कछु नाहि॥61॥
गर्भमाँह प्रतिपालिया, लोकमाँह प्रतिपाल।
धरनी आगे सोइ प्रभू, ताते मन खुशिहाल॥62॥
धरनी शिरपर सर्वदा, श्री रघुनाथ सहाय।
जँह 2 चलाँे कुपन्थपर, देत सुपन्थ चलाय॥63॥
बहुत विनोदी जगत मेँ, बहुत विनोदा नाम।
विमल विनोदानंद के, धरनीदास गुलाम॥64॥
धरनी चहुँदिशि देखिया, वहुविधि मानुष टोय।
सुख होवै मुख देखते, मिलिया विरला कोय॥65॥
मति कोहहिँ वैरी गिनै, मति कोइ जानै यार।
धरनी करनी आपनी, सब कोइ उतरै पार॥66॥
तानी कथनी सब करै, धरनी वरनि न जाय।
तानी भरनी जो नहीँ, तानी तौलि विकाय॥67॥
तानी कथनी जो करै, करनी भरनी होय।
धरनी देाो धरनिमँ, ता सम तुलै न कोय॥68॥
वरवश जग-जीतो चहै, अन्त हारि है सोय।
हरी बिना धरनी कहै, जग जीतनो न होय॥69॥
अपने 2 काजको, धरनी सबै सयान।
विरले कोइ परमारथी, दीख्यो सकल जहान॥70॥
कासाँ करिये वैरता, धरनी यहि संसार।
जो देखा तहकीक करि, सबही यार हमार॥71॥
कायिक वाचिक मानसिक, विधी कर्म व्यवहार।
धरनी अर्पा ताहिको, जासु नाम कर्त्तार॥72॥
जो गंगा हरिद्वारमेँ, सो गंगा परयाग।
सो गंगा है ब्रह्मपुर, मेल जहाँ लग लाग॥73॥
धरनी रमते धरनि मेँ, अस्थल है वैकुण्ठ।
साँच साँच मानि है, झूठ जानि है झूठ॥74॥
धरती एकै गाँव हे, एक कोस परमान।
धरनी लीजै समुझि के, कहा कहीजै आन॥75॥
जिन हरिभक्ति न जानिया, धरनी हैँ नर कूर।
अन्त गाड़ मोँ जाइहेँ, मसला है मशहूर॥76॥
धनि महिमा वहि राम की, वोरन तारन हार।
धरतिहि में तीनो रचे, धरती सरग पतार॥77॥
तन न गवो तीरथ कहीं, मन दौरो नव खण्ड।
धरनी गुरु-गम लखि परो, घट भीतर ब्रह्माण्ड॥78॥
सोरठा:-
करत न लागे वार, कर्त्ता चाहे सो करै।
फैलि गवो संसार, धरनीश्वरको संप्रदा॥79॥