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"गुरु-गोष्ठी / शब्द प्रकाश / धरनीदास" के अवतरणों में अंतर

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22:31, 21 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

प्रथम एक कर्त्ता जयाँ जीव जानी।
गुरु-शिष्य गोष्ठी कहाँ कछु बखानी॥1॥

कहंते सुनते पढते प्रतीति।
वरै ज्ञान-दीपक टरै हारि जीति॥3॥

मोहू ते सुनो साधु-संगति प्रसाद।
सुनते छूटे भूरि वादो विषाद॥4॥

विराज्यो गुरु आपने आसने।
कह्यो शिष्य आधीन हो सामने॥5॥

प्रभु-सनमुखे कछु कहंते डरोँ।
दोऊ हाथ जोरे विनती करोँ॥6॥

क्षमा कीजै अपराध मेरो सभू।
दया कर सुनो हे गुरुजी! प्रभु॥7॥

कहते वने ना वचन आवरी।
हमारे सदा है शरन रावरी॥8॥

कृपा कीजे लीजै मोहीं आपनाय।
तो सेवोँ सुखी होइ चरन चित लाया॥9॥

केते दिन कियो देवकी राधना।
केते दिन कियो पौनकी साधना॥10॥

देखाँे केते दिन दूध केवल अंबाय।
घने देवता-थान चहुँओर छाय॥11॥

भरो देह संदेह दीजै मिटाय।
कि जाक रेक सकलो भरम मेटि जाय॥12॥

चेताओ गुरु गब वदन सिखि सही।
कयामँ तिहारो जो है सो कही॥13॥

तिहारे वचन तो हमारे सोहात।
सोई है जो कर्त्ता बनाई है बात॥14॥

तबै शिष्य स्याने समुझिके कहा।
नहीँ कछु रहा तो कवन सा रहा॥15॥

किया ताहि कवने को है वाको नाम।
सो कवने सरूपे बसै कवने ठाम॥16॥

वही ते भया यह समस्तो पसार।
सकलमेँ बसै सोइ आपै अपार॥17॥

कहै सिख सकल मेँ बसै कोन भाँति?
सुरासुर मुनी जन जिया जन्तु पाति॥18॥

विमल वानि गुरुने कहा सिखसना।
युगे युगे कहत सब जो साधूजना॥19॥

कि जैसे अगिन काठ और दूध घीव।
सकल मेँ बसै वैसे ही जीव शीव॥20॥

”कि जैसे पहुप वास कुंभे शशी“।
”मुरूभूमि जल और सुरति आरसी“॥21॥

कह्यो सिख अधीने चरन चित्त लाय।
”कवन जीवते शीव पावै लखाय॥22॥

कहा तब गुरूने ”सुनो सिख सयान।
”बिना नर सरूपे अवर कोउ न जान“॥23॥

”सो बेगर परालब्ध पावै न कोय“।
”यतन युक्ति करिके नवो खंड जोय“॥24॥

जो सतगुरु किलेँ तो मिटै ऊँच नीच।
तबै वहि पावै कया- कोट-वीच॥25॥

सवादी विषादी विवादी अनेक।
सुभेदी मिलै कोटिमेँ गोटि एक॥26॥

जो बाहर फिरेँ ढूढ़ते द्वार द्वार।
भवन मेँ कवन सो करै ना विचार॥27॥

वहुरि सिख समीपे चरन सेवता।
कह्यो ”गुरु सकल देवतन देवता॥28॥

तिहारे चरन आदि अंतै गहाँ।
हमारे भवन भेद हमते कहो॥29॥

कवनि युक्ति ते भौ हमारी कया?
कहाँ सो बसो आप आतम रया?॥30॥

कह्यो संत गुरु युक्ति कीन्हो दुई।
व माता पिता के संयोगे भई॥31॥

त्रिगुन केर तत और पाँचों प्रसंग।
यही की समष्टी अहुट हाथ अंग॥32॥

बनो भीतरे बाहरे दश दुवा।
कहाँ लोँ कहीजै कया को पसर॥33॥

कया में बसेँ ब्रह्म विष्णू महेश।
सकल तन जन जानि भाष्यो सँदेश॥34॥

कहै कौन पारे कया-भौन-भेद।
चहूँ युग पुकारे कहेँ चारो वेद॥35॥

कयामेँ कँवल सार संपुट रहा।
सो ताही कँवल मेँ भवर हो रहा॥36॥

कहयो सिख महाराज! मेरो दुखा।
कवीन युक्ति करिके मिले मानुषा॥37॥

गुरू! मोहि दीजै सो मारग बताय।
जवन युक्तिसे मन भवन में समाय॥38॥

कहयो गुरु ”सुनो सिख! विकट है सो वाट।
महावीर वाँके लगे घाट घाट॥39॥

मया, मोह, हंकार, तृष्णा अजीत॥
लगे काम क्रोधा व निद्रा सहीत॥40॥

दुके दंभ, अभिमान, औ राग द्वेष।
रजो गुन, तमोगुन, सतोगुन विशेष॥41॥

प्रथम शीश आपन धरै जो उतार।
तो पीछे धरै पग भवन के दुवार॥42॥

गुरु का ेवचन सिख सँपूरन किया।
व वंकी तवहिँ हाथ अपने लिया॥43॥

अपाने अपन शिर उतारन चहो।
गुरू दौरिके हाथ हाथे गहो॥44॥

बहुरि एक समेया भवो जब एकन्त।
तहाँ होइ दिढाओ सुनाओ सुमन्त॥45॥

सो बैठे गुरू सिख दुओ आस पासि।
बुझावो सुझाओ मिटाओ उदासि॥46॥

सो साँची लगन जानि अस्तुति करी।
जो ऐसी करी तो मिलैगा हरी॥47॥

बिना साहसे सिद्धि मिलतो न पूत।
घनेरो बतावै बतावै बहूत॥48॥

सो चिन्ता कवन चित कवन फल चहो।
जो संशय तिहारो सो हमसे कहो॥49॥

दयाकरि दिनानाथ! कीजै निशंक।
कवन युक्ति जीतै ऐते वीर वंक॥50॥

कह्यो गुरु सुनो सिख! श्रवन चित लाय।
कहों वरी-वाँके जितन उपाय॥51॥

गहै शील संतोष धोखा मिटाय।
क्षमा धैर्य धारे सहज संग लाय॥52॥

दया साँच सूकृत अवर दीनता।
सुनो ससिख सनेही! सँपूरन मता॥53॥

भगत को सनेही जगत की न आस।
महावीर वाँके सभी ताके दास॥54॥

वहुरि शिष्य अरदास ऐसी कही।
जहाँ ते वचन उच्च रै सो सही॥55॥

य शंसय बढ़त है हमारे मते।
केते दिन-अवधि साधना साधते?॥56॥

केते दिन हमारे जिवनको प्रयान।
सो कीजै कृपा युक्ति करुना निधान।57॥

घनो जीवनो आज पाओ दृढ़ाय।
अवहिते करो साधनेकी उपाय॥58॥

न डोले न बोलो न आओ न जाव।
न जीवेते हर्षो मरेते डराव॥59॥

है थोरा जिवन बीच कैसेको साध।
व ऐसे महाधन को कैसेको लाध॥60॥

सो कहिये कृपा करि जो शंसय मिटाय।
जवनि युक्तिते कँवल-सम्पुट छुदाय॥61॥

कहाँ होइ कया-कोट में जाइये?
कहाँ होइ अलोपी-दरश पाइये?॥62॥

तबै गुरु कृपाकै कहो एक ध्यान।
बताओ जहाँ द्वार तिलके प्रमान॥63॥

सो ताला खुलो जोति कीन्हो प्रकाश।
जहाँलो परो दृष्टि धरती अकाश॥64॥

है बाहर विराजो घनो रंग फूल।
चलो भौन-भीतर जहाँ सर्व-मूल॥65॥

सो पैठो सुषुमना उरथ को चढ़ो।
जहाँ जोति ज्वाला बराबर बढ़ो॥66॥

झलक्के झलाझल झिलिमिली अकाश।
स्रबै धार-अमृत कँवल-दल विकास॥67॥

गरज्जै सघन घन अनाहद निशान।
सुनतै थकित होइ तहाँ पौन प्रान॥68॥

तहाँते उतर देख उत्तर दिशा।
जहाँ होइ करत आप अपनी निशा॥69॥

तहाँ होइ हरषि हेरु हृदय मँझारि।
त्रिगुनते रहित है परम तत्त्व सार॥70॥

निरेखो निराकर निर्मल स्वरूप।
तहाँ है अरध एक मूरति अनूप॥71॥

है सूछम सरूपी सदा-शिव कला।
मया-वृछ जाको सघन होइ फला॥72॥

यही पंथ को पंचतिरथी कही।
जो देखा परैगा करैगा सही॥73॥

सुनते श्रवन सिखकै हृदया अनंद।
मिटानो तिमिर जनु उगो आनिचंद॥74॥

कहयो सिख सुनो गुरु! कहाँलाँ कहाँ।
करो युक्ति ऐसी जहाँ निर्वहो॥75॥

प्रकट पंच तिर्थी महोदधि अपार।
कहो पंथ ऐसो जो लागे न वार॥76॥

महाराज पारस मैं लोहा कठोर।
लिजै करि कनक नेकु लगै न वार॥77॥

त चन्दन मलयगिरि मैं पामर परास।
कृपाके पवन से सो कीजै सुवास॥78॥

तुभृंगी परम गुरु! मैं कीरा पतंग।
दया करि करो आपनो रूप रंग॥79॥

गुरू दीनता देखि कीन्हाँ सहाय।
तो मूँदो नयन नेकु सहजै समाय॥80॥

तबै गुरु कियो कछु अजूबा उपाय।
सो जानै जनैया कहे कहि न जाय॥81॥

बिना द्वार दीन्हाँ भवन में चलाय।
महावीर वाँके रहे सब लजाय॥82॥

बिना लेजु सीढ़ी झरोखे चढ़ाव।
कियो पार भव-जल न बेरा न नाव॥83॥

पहूँचे तहाँ जाय गुरू की दया।
जहाँ है अमर वृक्ष शीतल छाया॥84॥

सु-अस्थिर अभयलोक आनन्द धाम।
सुपरसो अलोपी-दरश ताहि ठाम॥85॥

गया सो गया जो गया ताहि देश।
जहाँ न जरा औ मरनका कलेश॥86॥

वहुरिना अवागौन सोगो सँताप।
नहीं स्वर्ग नर्का नहीं पुन्य पाप॥87॥

नहीं काल-काला नहीं धर्मराव।
नहीँ मुक्ति कैलाश वैकुंठ चाव॥88॥

नहीं कर्म धर्मा न वेदो पुरान।
नहीं योग जप तप नहीं ज्ञान ध्यान॥89॥

अगिन पौन पानी न धरती अकाश।
न राजा न स्वामी न परजा न दास॥90॥

निकसिया जहाँते तहाँ फिरि समान।
भयो एक एकै न दूजो निशान॥91॥

सो योगी करै योग ऐसो विचार।
है भोगी सोई भोग ऐसो भँडार॥92॥

है भक्ता सोई जो भगति भेद जान।
है पंडित सोई जानु ऐसो पुरान॥93॥

है ज्ञानी सोई ज्ञान विज्ञान जान।
है शूरा रचो मौन-भीतर मैदान॥94॥

तपस्वी रहे तत्त्व से तंतु लाय।
है तिर्थी सोई तीर्थी सोई तीर्थ एकै नहाय॥95॥

सो धनि धनि गुरू शिष्य-गोष्ठी कही।
है धनि सो शब्द करै जो सही॥96॥

करै जो सही तो सरै सर्वकाम।
सकल धर्म नेभा जपो राम राम॥97॥

है पूरा करै शब्द पूरा प्रकाश।
धरनि जन कहै दास दासानु दास॥98॥

है अमृत-कथा एक सब शब्द एक।
धरनि सोइ ज्ञानी करै जो विवेक॥99॥