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91.
जाके राम-चित लागा।टेक।
ताके मनको भरम भुलानो, धंधा धोखा भागा॥
सो जन सोवत आँचकहीमेँ, सिंह सरीखे जागा।
धनि सुत जन धन भवन न भावत, धावत वन वैराग॥
हरषित हंस दशा चलिआओ, दुरिगो दुर्मति कागा।
पाँचहु को परपंच न लागै, कोटि करेँ जो दागा।
साँच अमल तँह झूठ न झांकै, दया दीनता पागा।
सत्य सुकृत सन्तोष समानो, ज्यों सूआ-मधि धागा॥
ले मन पौन उरधको धावै, उपजु सहज अनुरागा।
धरनी प्रेम मगन जन जोई, सोइ जन शूर सुभागा॥1॥