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बिलखत महतारी, छाई जहाँ अँधयारी
घर करै भायँ-भायँ जैसें खायँ जात है;
लुटगौ सुहाग-सोम, कौंरी कली मुरझानी
बिधवा जबान गऊ-ऐसी डिंड़यात है।
बड़े-बड़े बेठ उतै खात पुरी-मालपुआ
नाँव ‘दिन-तेरहइँ’ जुरत बर
एक-एक दानों, अरे, अँसुवन सानों जहाँ
ऐसे ही रसोई हाय, कैसे कैं रिहात है?