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"करुणा / अशोक कुमार पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

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10:26, 13 अगस्त 2016 के समय का अवतरण

करुणा के किस्से सुनते बीता बचपन

कोई अपने ही शरीर का मांस खिलाता रहा काट-काट कर
किसी ने दान कर दिया सर्वस्व स्वप्न में दिया वचन निभाने के लिए
एक जो प्रेम की राह चलने उतर आया राजमहल की सीढियां
दूसरे ने प्रेमिका की ज़िद रखने के लिए मोड़ दी नदी की धार
मित्र के दैन्य से द्रवित चमत्कारी देव
और शत्रु के शौर्य से चमत्कृत मनुष्यों की गाथाएं अनंत

करुणा बसी रही पवित्र श्लोकों के सुगंध सी सांसों में
एक हाथ ऊपर से फैली हुई झोलियों में उच्छिष्ट डालती माँ
करती रही किसी देवी सी उल्लसित
ऐसी ही तमाम छवियाँ धवल वस्त्रों में सजे-धजे
पारिवारिक पुरुषों की गढ़ती रहीं भविष्य के स्वप्न
कभी उपमन्यु-कभी कैसाबियान्का और कभी श्रवण कुमार
करते रहे हममें साधिकार प्रवेश

खुली आँखें तो देखी
इतनी करुणा चारो ओर कि अन्याय का बोलबाला था
इतनी दया कि दिनदहाड़े हुई हत्याओं का कोई गवाह न था
इतनी उदारता कि इज्ज़त और हत्या जुड़वा भाई-बहन लगते थे
औरतें थी करुणा के बोझ से विकृत मेरुदंड लिए
उन्हें करते जानी थी दया उम्रभर और दयनीय बने रहना था

एक देश था भर-भर जहाज भेजता उदारतायें दुनिया भर में
नीति में उदारता-अर्थ में उदारता-डालर उदार-उदार हथियार
करुणा बरसती और कंकालों से भर जाते अफ्रीका के जंगल
करुणा बरसती और नशे में डूब जाता लातिन अमेरिका
एशिया के खेतों में लहलहाती भूख की फसलें और सड़कों पर दंगों के दृश्य उदात्त

और भारत भूमि तो खैर सदियों से करुणा की खान रही
शम्बूक से हुसैन तक उदारता ही उदारता
बाथे से अहमदाबाद तक करुणा ही करुणा
हद तो यह कि कविताओं में भी करुणा इतनी कि उबकाई आती अक्सर
संपादक की करुणा-आलोचक की करुणा
पाठक की करुणा-प्रकाशक की करुणा
करुणा के बोझ से झुकी कविता की पीठ पर
भाषा की गर्दन में पत्थर सी करुणा
अग्रज हैं, अनुज हैं, पितातुल्य, प्रणम्य हैं
इनकी अवहेलना अपराध एक अक्षम्य है

और मैं मित्रता की तलाश में फैले हुए हाथ लिए फिरता हूँ इस बियाबान में
बदले में प्रतीक्षारत पाँव मिलते हैं गर्वोन्मत्त और भरी हुई आँखें करुणा से
मैं अपने प्रश्नों के साथ उतरना चाहता हूँ युद्धभूमि में
वहाँ सूर्यास्त के बाद की साजिशें हैं और उदारतायें
मैं ठीक तुम्हारे बगल में बैठ कर करना चाहता हूँ तुम्हें प्रेम
पर वहाँ तलाश है प्रेम की जड़ में भय की कोशिकाओं की

नहीं भगवत जी*
इस दुनिया को करुणा की नहीं
दोस्ती की
प्रेम की
और न्याय की ज़रूरत है...

  • भगवत रावत जी की कविता ‘करुणा’ पढ़ते हुए