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अनिद्रा मां भृशं बाधते स्म
पूतनेव मां क्रोडे धृत्वा
सा विषाक्तं स्तनं न्यस्यति मन्मुखे
सा मरुःस्थलं रचयति
यस्य निरवधौ विस्तारे
पिपासितोऽहं धावामि
कुलटेव कुवचनैर्मां कवलं कवलं सा निगिलति स्म तदानीम्।
इदानीमनिद्रया अहं विहरामि
सा विहसन्ती मयि रमते
निद्रा दूरं स्थिता पश्यति।
कूलङ्कषोऽहं नदः
निद्रा च अनिद्रा च उभे तट्यौ
आप्लावयन् प्रवहामि
स्पृहयत उभे तट्यौ
मया सह प्रवाहाय।