"सपने में / अशोक कुमार पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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आज की उम्र पूरी हो गई है चाँद की
नींद की भी उम्र होती है
बस सपने हैं जिन्होंने आब-ए-जमजम चखने का गुनाह किया है
और अश्वस्थामा की तरह भटक रहे हैं घायल
न नींद का कोई दिन मुअइय्यन है न सपनों का
(एक)
एक अँधेरी खाई है
जिसमें दौड़ रहा हूँ लगातार
पांवों में मेरे मद्धम लौ है थरथराती
हाथ काँपते हैं भय और उत्तेजना से
फिर अचानक इतनी रौशनी
कि हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता
(दो)
एक बहुत छोटा सा काम है
मसलन किसी दोस्त को लेने जाना है स्टेशन पर
लेकिन मोटरसाइकल पंचर है
फिर बाहर बहुत तेज़ बारिश
फिर दफ्तर से फोन किसी ज़रूरी काम के लिए
फिर रास्ते में दंगे हो रहे हैं धारा १४४ शहर में
फिर इतनी भीड़ कि जाम लगा है किसी देवता का जुलूस
फिर झटके से उठता हूँ
और दोस्त को फोन लगाता हूँ
(तीन)
बस गिर पड़ी है किसी पुल के साथ सूखी नदी में
गीले घावों के साथ पड़ा हूँ एक अपरिचित भीड़ में
एक बूढ़े की ओर बढाता हूँ हाथ तो वह
कस के थाम लेता है अपनी गठरी
एक औरत जिसका बच्चा खो गया है कहीं
उसे देखता हूँ तो तुरत आँचल संभालने लगती है
सोचता हूँ एक सिगरेट ही पिला दूँ ड्राइवर को
लेकिन वह भाग रहा है बेतहाशा
मेरा फोन ज़ेब में नहीं है और पत्नी से बात करने की इच्छा अदम्य
बैग जो रैक में था कहीं नहीं है अब और तीन दिनों की मेहनत बेकार हो जाने पर दुखी भी नहीं हूँ
एक मेढक जीभ बढ़ाकर लपकता है फतिंगे को और पानी कहीं नहीं है
आसपास से तमाम लोग आये हैं और ज्योंही सोचता हूँ मनुष्यता के बारे में
एक भागते हुए के हाथ में मेरा बैग दिखाई देता है दूसरे के हाथ में वह गठरी
मैं भागना चाहता हूँ उनके पीछे लेकिन मेढक के बगल में बैठ जाता हूँ तो वह छिटक कर दूर चला जाता है
उस औरत के कानों में बाली नहीं है गले में मंगलसूत्र भी अब नहीं हाथ में कोई झोला भी नहीं
गोद में बच्चा है और वह आँचल उघाड़े दूध पिला रही है
मैं बच्चे का सिर सहलाना चाहता हूँ तो पहुंचता हूँ पत्नी के थके हुए हाथों तक
(चार)
अहिंसा के मेरे व्रत
टूटते हैं स्वप्नों में
अभी अभी मैंने एक तानाशाह की चाय में ज़हर मिला दिया है