"घर / निधि सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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गतिशील युग है ये
आत्मपरिचय के विन्यास बदल रहे हैं...
अक्सर कुछ प्रश्न अन्तर्मन में कुलबुलाते रहते
कौन हूँ मैं?
मेरी पहचान क्या है?
मेरी सार्थक उपलब्धियाँ क्या हैं?
जितना मंथन करती उतने ही अंतर्विरोधों में बंधती जाती...
बहरहाल मुझे चिरप्रतीक्षित उत्तर
मिले अपने पुत्र से
जब अपनी अनुपस्थिति में मैंने उससे पूछा
कि तुम हॉस्टल से घर कब जा रहे हो?
और उसने बड़ी सहजता से उत्तर दिया
माँ तुम तो हो नहीं
मैं घर जा कर क्या करूँ...
लगा जैसे नभ पर पूर्णता बिखर गई
जैसे किसी निपुण व्याख़्याकार ने
स्त्रीत्व को परिभाषित कर दिया हो...
हाँ मैं घर हूँ...
ये घर किसी चारदीवारी में कैद विलास नहीं
बल्कि मेरे अस्तित्व का आश्रय है...
वही निकेत घर कहलायेगा
जहाँ मैं रहूँगी...
जहाँ मेरे अनुनय और आश्वासन होंगे...
जहाँ प्रत्येक क्षण मेरी सुगंध से सुवासित होगा...
जहाँ मेरे जागने पर भोर होगी
और मेरी अलसाई आँखो को दुलार कर रात होगी...
हाँ यहाँ कुमुद मेरे लिये ही खिलते हैं
शुभ शगुन मेरे निमित्त ही आते हैं
हर आशंका मुझे छू कर आकांक्षा में परिवर्तित हो जाती है
अभाव भाव में लीन हो जाते हैं...
हाँ मैं ही घर हूँ
कि मेरे अपनों की परछाइयों के रेले
मुझे खोजते हुए बह कर मुझ तक ही आते हैं...