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03:33, 21 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण

और अंततः
नही शांत हुई
तुम्हारे गुनगुनाये गीतों से
नन्हके के पेट में सुलगती आग
और न ही वे दे सके
फटी गुदड़ी में ठण्ड से काँपते
रात रात भर खांसते बाबा को
घड़ी भर नींद
तो खूबसूरत शब्दों में ढले
सावन के झूले, नैहर, कुओं और
काँटों से लहूलुहान तितली की पीड़ा पर
तुम्हारे वे तमाम गीत किस काम के?
तुम्हारे गीतों से झंकृत
राग रागनियाँ
बेशक कुछ पलों के लिए
सपनों की दुनिया में खींच ले जाती हैं मुझे
कभी शब्दों से छलकती वेदना पर
गिरा करके कुछ आँसू
निभा जाती हैं चलन ये आँखें भी
पर अगले ही पल
मेरी सम्पूर्ण चेतना झकझोरते
उभरने लगते हैं एक एक कर कई बुझते चेहरे
और मेरे पांवों तले जमीन
कुछ और धसकती मालूम होती है मुझे
इससे पहले कि
सुनाई पड़ती ये धुने
मुझे बहरा बेसुरा और तमाशाई बना दे
इससे पहले कि
इन गहरे अक्षरों में आकार लेते दैत्य
समूची संवेदनाएँ लील जाए
गढ़नी होंगी कुछ नयी परिभाषाएँ
जो गुनगुनायी जा सके आँखों से
हाँ, बुझ चुकी पथराई आँखों से भी...