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चढ़ता सूरज
एक निरंकुश शासक सा
“मै ऐसा ही हूँ “
दंभ से लाल पीला हो तमतमाता
गढता है हर रोज रण नीतियाँ
अपनी जिंदगी अपने शर्तों पर जीने की
फिर फैलाता है निर्द्वंद रार
अपने मद में चूर
भून देता है अपनों के अरमान
और सांझ ढले
खुद को डुबो देता
समंदर के खारे द्रव्य में
पथराई धरा
अपने नन्हे छौनों को
मुरझाया देख
सब बिसरा
अपनी खंगाली हुई
समूची शीतलता उडेलती
उन्हें अंक में सहेजती
शून्य में ताकती ही रह जाती है