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"चाँदनी रोॅ मेला / शिवनारायण / अमरेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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हे हमरोॅ साथी
साल्हौं बाद अशोक राजपथ के ई गहमागहमी में
आखिर हठासिये तोहें मिली गेलौ नी।
हमरा मालूम छेलै
तोहें मिलवौ
आरो यहीं ठां मिलवौ।

तोरोॅ आँख कुछ जानै लेॅ चाहै छै
ठहरोॅ
तोहें कैन्हें पूछै छोॅ
हम्में बतावै छियौं
कि जोॅन पनसोखावाला चाँदनी रोॅ मेला में
तोहें भटकी रहलोॅ छोॅ
ऊ यैठां नै मिलै वाला।

आवोॅ
गाछी के छाँव में कटि टा सुसताय ला
फेनू बतावै छियौं
कि जोॅन यात्रा केॅ तोहें
अनन्त समझै छौ
ऊ कत्तेॅ ससीम
आरो ओकरोॅ सब्भे टा जिजीविषा
कत्तेॅ बोनोॅ छै।

तोहें बेहद थक्की गेलोॅ छोॅ नी!
यात्रा के भाङटोॅ केॅ नै परखेॅ पारोॅ
तोरोॅ दोनों टा पुतली
ई धुँधलका में हेरैलोॅ
खलिया रिस्ता रोॅ संवेदना केॅ
नै समेटेॅ सकतौं।

सुनोॅ
पनसोखा वाला चाँदनी रोॅ मेला में
ई है रेशमी चकाचौंध
जानेॅ तेॅ कत्तेॅ भोला दिलोॅ के
भावोॅ केॅ
आपनोॅ गुदगुदोॅ देह
आरो गदरैलोॅ जवानी सें लूटी चुकलोॅ छै
जबेॅ तोहें
एकरोॅ धार केॅ आत्मसात करै वास्तें
जिद्द के बात करै छौ
तेॅ सच कहै छियौं
तोरोॅ भोला चेहरा पर
कत्तेॅ-कत्तेॅ कोमल भावों के लकीर
अपन्है में गुत्थमगुत्था होय
हेलेॅ लागै छै।

रंगीन कपड़ा में लिपटलोॅ
गरम गुदगुदोॅ देहोॅ रोॅ मेला
जबेॅ यहाँकरोॅ नरम पंक्ति सिनी में
तबेॅ यहाँकरोॅ धारा में
एकमएक होय के सब्भे टा कोशिश
तोरोॅ सर्द देहोॅ में सिकुड़ी
कसमसाय केॅ रही जाय छै।

आबेॅ, लौटी चलोॅ
हमरोॅ सहमित्र!
ई पनसोखावाला चाँदनी रोॅ मेला के
दुधिया मिजाज सें
तोहें बेतरह लुटी चुकलोॅ छोॅ।
जिनगी के सौंसे खण्ड केॅ
जोॅन पंक्ति के तलाश में
तोहें होम करी देलौ
ऊ ई मेला सें बाहर
आरो बाहर ठाढ़ोॅ रंग-बिरंगा
गाड़ी के काफिलशाहौ सें दूर
चारो दिश ढकमोरलोॅ गाछी के छाँव में
अकेले ठाढ़ोॅ राह देखी रहलोॅ छौं।

आवोॅ
एक लब्बोॅ संकल्प
तीरोॅ मुक्ति लेॅ
एकान्तिक प्रार्थना करी रहलोॅ छौं।