"मंत्र 11-15 / ईशावास्य उपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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:::जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है,<br> | :::जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है,<br> | ||
:::निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [१४]<br><br> | :::निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [१४]<br><br> | ||
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+ | हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।<br> | ||
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16:25, 26 अप्रैल 2008 का अवतरण
विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥
जो ज्ञान कर्म के तत्व का, तात्विक व ज्ञाता बन सके,
निष्काम कर्म विधान से, निश्चय मृत्युंजय बन सके।
उसी ज्ञान कर्म विधान पथ से, मिल सके परब्रह्म से,
एक मात्र निश्चय पथ यही, है जो मिलाता अगम्य से॥ [११]
- अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
- ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥
- अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
- जो मरण धर्मा तत्त्व की, अभ्यर्थना करते सदा,
- अज्ञान रुपी सघन तम में, प्रवेश करते हैं सर्वदा।
- जिसे ब्रह्म अविनाशी की पूजा, भाव का अभिमान है,
- वे जन्म मृत्यु के सघन तम में, विचरते हैं विधान है॥ [१२]
- जो मरण धर्मा तत्त्व की, अभ्यर्थना करते सदा,
अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥
प्रभु दिव्य गुण गण मय विभूषित, सच्चिदानंद घन अहे,
यही ब्रह्म अविनाशी के अर्चन का है रूप महिम महे।
जो देव ब्राह्मण, पितर, आचार्यों की निस्पृह भाव से,
अर्चना करते वे मुक्ति पाते पुण्य प्रभाव से॥ [१३]
- संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
- विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥
- संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
- जिन्हें नित्य अविनाशी प्रभु का मर्म ऋत गंतव्य है,
- उन्हे अमृतमय परमेश का अमृत सहज प्राप्तव्य है,
- जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है,
- निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [१४]
- जिन्हें नित्य अविनाशी प्रभु का मर्म ऋत गंतव्य है,
हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥
अति दिव्य श्री मुख रश्मियों से, रवि के आवृत है प्रभो,
निष्कंप दर्शन हो हमें, करिये निरावृत, हे विभो !
ब्रह्माण्ड पोषक पुष्टि कर्ता, सच्चिदानंद आपकी,
हम चाहते हैं अकंप छवि, दर्शन कृपा हो आपकी॥ [१५]