भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यह आम रास्ता नहीं है / सुजाता" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुजाता |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

22:41, 21 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

जब हवा चलती है हिलोरें लेता है चाँद
मैं उनींदी-सी होकर भूल जाती हूँ
उतारकर रख देना जिरहबख्तर
सोने से पहले

यह आम रास्ता नहीं है

यह जगह-जिसे तुम नींद कहते हो
यहाँ जाना होता है निष्कवच, बल्कि निर्वस्त्र
खोल कर रखने होते हैं वस्त्रों के भीतर
मन पर बँधे पुराने जीर्ण हुए कॉर्सेट

कुछ शब्द किसी रात जो गाड़ दिए थे चाँद के गड्ढों में
वे घरौंदा बनाते उभर आए हैं मेरे होठो पर
उनींदी बडबडाहट की तरह
कभी उधर जाना तो लेते जाना इन्हें वापिस
मिलेंगे और न जाने कितने सपने, गीत, पुराने प्रेम, पतंगे और खुशबुएँ

खुद में खुद को ढूँढना खतरनाक है
मैं बेआवाज़ चलना चाहती हूँ
कहीं रास्ते में टकरा न जाए वह भी
जिसे कभी किया था वादा
कि-हाँ, मैं चलूँगी चाँद पर... लेकिन हवा में टँगी रह गई.

इन रास्तों पर गुज़र कर हवा भी न बचे शायद
क्या निर्वात की भी अपनी जगह नहीं होती होगी?
रहना होगा वहीं उसी निर्वात में निर्वासित

हाँ भय नहीं निर्वसन होने का
निष्कवच हो जाने का भी खटका नहीं होगा
कोई तो गीत पूरा होगा ही भटकाव की तरह
आम रास्तों पर चलकर नहीं मिलती
 अपनी नींद
 अपना निर्वात
 निर्वसन स्व
 निष्कवच मन!