भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उन्मन-उन्मन सुबह / रामस्वरूप 'सिन्दूर'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामस्वरूप 'सिन्दूर' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

08:59, 29 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

उन्मन-उन्मन सुबह
     और फिर उन्मन-उन्मन शाम!
दिन के माथे जड़ी धूल पर उखड़े हुए प्रणाम!

  सड़कों पर बदरंग टोपियाँ-झण्डों की भरमार,
    चाभी-भरे खिलौनों के जुलूस करते बेगार,
वक़्त गुज़ारे
  घोर नास्तिक लेकर हरि का नाम!
दिन के माथे जड़ी धूल पर उखड़े हुए प्रणाम!

होश फाख्ता करते बगुला-भगती शांति-कपोत,
  सूरज की रोशनी पी गये, नशेबाज़ खदयोत,
जो जितना बदनाम
 हो रहा वह उतना सरनाम!
दिन के माथे जड़ी धूल पर उखड़े हुए प्रणाम!

  होटल के प्यालों से चिपके क्षमताओं के होंठ,
स्वगत-गालियों में करते हैं खुद अपने पर चोट,
     भीतर-भीतर युद्ध हो रहा
  बाहर युद्ध-विराम!
 दिन के माथे जड़ी धूल पर उखड़े हुए प्रणाम!