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"जीवन का सार / अतुल कुमार मित्तल" के अवतरणों में अंतर
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पूरे जीवन का सार
सीख लिया था अनजाने ही
खेलते बचपन में आँख-मिचौली
तब बंधी होती थी
आँखों पर पट्टी
ढूंढना होता था कई अनजानों में
एक अपना
उत्साह में भरे
आते ही बाहों में
उतावली देखने की
कौन है?
तब था सब
कुछ एक सपना
और फिर से वही क्रम
बिना जाने अन्त-
कि आखिर किस पर जाकर
रुकेगी
यह खोज
अब
शक्ति नहीं
फिर-फिर घूमने की
उसी गोल में
आते ही बांहों में
उतावली की जगह
एक ठंडा सा भय
कहीं खोल दी पट्टी
और
वो न हुआ! तब!
(22.05.87)