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पाँखुरी पर जब लिखूं मैं, प्रेम पाती भोर से।
फूल पर पड़ती छलक तब, बूँद दृग दल कोर से॥
बह रही पुरवा सुहानी, घोलती है गंध को।
घोल कर फिर गंध को ये,बाँधती मधु बंध को॥
बंध कोई जुड़ गया जब, आस अन्तस् में जगे।
आस में डूबे सभी दिन, साथ प्रिय के ही पगे॥
बहकती जब सपन चूनर, वात के इस जोर से।
फूल पर पड़ती छलक तब, बूँद दृग दल कोर से॥
झूमती हैं सब दिशायें, उर्मियोँ के प्यार से।
प्यार से धरती खिली फिर, मृदु छुअन मनुहार से॥
मृदु छुअन में कामना है, प्रीत की आराधना।
प्रीत मन्दिर में बसे तुम, पूर्ण करते साधना॥
गूँजती जब स्वर लहरियाँ, मधुमयी हर ओर से।
फूल पर पड़ती छलक तब, बूँद दृग दल कोर से॥