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"जेठ की दुपहरी / श्वेता राय" के अवतरणों में अंतर

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प्रीत तुम्हारी सुधियों में बन हृदय वेदना जगती है
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इस सुलगती दुपहरी से, मिल रही जो शाम है।
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बेकली मन में छुपाये, लग रही अभिराम है॥
  
गगन आसरा दे ना पाये
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खग विहग सब आ रहे हैं, लौट अम्बर छोर से।
सागर में भी वो न समाये
+
मालती भी झूमती है, खिल रही जो भोर से॥
हाय पीर बिछडन की अब बन नीर नयन से बहती है
+
गुलमुहर भी अब दहक प्रिय, छीनते आराम हैं।
प्रीत तुम्हारी सुधियों में बन हृदय वेदना जगती है
+
बेकली मन में छुपाये, लग रही अभिराम है॥
  
हो गया सूना जीवन मेरा
+
पात सारे हिल रहे हैं, कोयलें छुपती फिरें।
सपनो का अब रहा न डेरा
+
वात के सुन जोर से ही, दृग भँवर तत्क्षण तिरे॥
जाते तेरे पग की ध्वनि अब बन लय धड़कन बजती है
+
बाग़ में बन मन गिलहरी, घूमता अविराम है।
प्रीत तुम्हारी सुधियों में बन हृदय वेदना जगती है
+
बेकली मन में छुपाये, लग रही अभिराम है॥
  
सुन के विरही मन की पुकारें
+
तुम मिले थे जब प्रिये तब, तप्त मेरा रंग था।
दर्द की राहें बाँह पसारे
+
था महीना चैत का वो, रुत रूमानी अंग था॥
काली नीरव तम भरी रजनी अब बन नागिन डसती है
+
छू गई तब प्रीत पागल, हिय हुआ बेकाम है।
प्रीत तुम्हारी सुधियों में बन हृदय वेदना जगती है...
+
बेकली मन में छुपाये, लग रही अभिराम है॥
 
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11:13, 2 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण

इस सुलगती दुपहरी से, मिल रही जो शाम है।
बेकली मन में छुपाये, लग रही अभिराम है॥

खग विहग सब आ रहे हैं, लौट अम्बर छोर से।
मालती भी झूमती है, खिल रही जो भोर से॥
गुलमुहर भी अब दहक प्रिय, छीनते आराम हैं।
बेकली मन में छुपाये, लग रही अभिराम है॥

पात सारे हिल रहे हैं, कोयलें छुपती फिरें।
वात के सुन जोर से ही, दृग भँवर तत्क्षण तिरे॥
बाग़ में बन मन गिलहरी, घूमता अविराम है।
बेकली मन में छुपाये, लग रही अभिराम है॥

तुम मिले थे जब प्रिये तब, तप्त मेरा रंग था।
था महीना चैत का वो, रुत रूमानी अंग था॥
छू गई तब प्रीत पागल, हिय हुआ बेकाम है।
बेकली मन में छुपाये, लग रही अभिराम है॥