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11:34, 2 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण
जीवन क्षणभंगुर है अपना, तो फिर क्यों उत्साह नही।
पिघला दे जो नियत शिला को, ऐसी कोई आह नही।
आता है जब ज्वार पीर का, विपदा बढ़ती जाती है,
हृदय समेटे खुशियाँ फिर भी, होती किसको चाह नही।
नैनो में यदि अश्रु न आये, ऐसी करुण कहानी क्या।
पत्थर का जो रूप न बदले, ऐसा बहता पानी क्या।
जीवन तो बस वो जीवन है, जिसको जीे भर जी ले हम,
भय को अपना सखा बना ले, ऐसी भला जवानी क्या।
काट सके जो समय चक्र को, बनी अभी तलवार नहीं।
हर्ष पीर दोनों में बहता, आँसू का पर भार नहीं।
फूल शूल सब वन की शोभा, पतझड़ ही तो बस सच है,
आने वाले कल पर अपना, है कोई अधिकार नहीँ।
सुन्दर धरती सुन्दर अम्बर, सुन्दर ये संसार रचा।
ताल पोखरे नदियाँ झरने, सागर जैसा प्यार रचा।
रचने वाले तुमने जाने, क्या क्या जग में रच डाला,
पर जीवन सँग मृत्यु बना कर, दुख का क्यों आधार रचा।