"नवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी" के अवतरणों में अंतर
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करो कवि, नव युग का निर्माण।
नव श्वासों में आज भरो कवि,
नवल स्फूर्ति, नव प्राण।
आज राष्ट्र की सुप्त चेतना ने आँखें खोली हैं
झलमल करते ओस-बिन्दुओं से पलकें धोली हैं;
नव दिनकर की नवल
रश्मियाँ लाईं नवल विहान।
करो कवि, नव युग का निर्माण।1।
आज पर्वतों के शृंगों से बही स्वर्ण की धारा
सिंचित होगा र्स्वा-वारिसे मधुमय देश हमार;
स्वर्णांचल से ढके धरणि के होंगे रत्न महान।
करो कवि, नव युग का निर्माण।2।
दानवता की लौह शृंखलाओं का अंत हुआ है
मानवता की स्वर्ण-रश्मियों
का नव उदय हुआ है;
साम्राज्य-सामंतवाद के दीपक का निर्वाण है
करो कवि, नव युग का निर्माण।3।
स्वर्ण-पाश में बँधे आज मानव-मानव की आत्मा
मर्त्य-लोक बन जाय स्वर्ग,
आ बसे यहीं परमात्मा;
मानव-मानव में हो बस मानवता की पहचान।
करो कवि, नव युग का निर्माण।4।
मापदण्ड सभ्यता-संस्कृति के तुम आज बदल दो
भौतिक ऐश्वर्यों के आदर्शों को आज कुचल दो;
हो सकती है कभी न इनसे मानव की पहचान।
करो कवि, नव युग का निर्माण।5।
भौतिकता की तुला तोल मानव का कब कर पायी?
माँस-पेशियों की ही रे वह मोल-आँक भर पायी?
आत्मा ही आत्मा की केवल कर सकती पहचान।
करो कवि, नव युग का निर्माण।6।
इसी तुला से आज
सभ्यता-संस्कृति को तुम तोलो।
भौतिकता के गठबंधन में बँधे विश्व को खोलो;
माँग रहा वह भीख प्राण की, दो उसको वरदान।
करो कवि, नव युग का निर्माण।7।
सृजन करो हे आज स्वर्ग
युग का अपनी वाणी से
हुआ व्यक्ति अतीत दुखद कह दो प्राणी-प्राणी से;
थिरक रही है कलियों के ओठों पर मृदु मुस्कान।
करो कवि, नव युग का निर्माण।8।
बहुत गा चुके गान प्रलय के,
अब न उन्हें गाना है
शंकर से प्रलयंकर हो तुम, जग ने यह जाना है;
किंतु आज शिव बनकर
करना है जग का कल्याण।
करो कवि, नव युग का निर्माण।9।
स्वर्णोदय हो रहा,
प्रकृति का वाह्य वेष परिवर्तित
किंतु तुझे कवि,
करनी है रे अंतः प्रकृति विनिर्मित;
अमर कंठ से मंगल स्वर में गाओ मंगल गान।
करो कवि, नव युग का निर्माण।10।