"जैसे हर आदमी / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी" के अवतरणों में अंतर
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जैसे हर आदमी की
होती है अपनी आयु,
वैसे ही
समय की भी होती है अपनी उम्र।
एक वर्ष आता है,
नया हर्ष लाता है;
बारह माह या कि दिन तीन सौ पैंसठ की
होती है उसकी आयु
वृक्षों की नई-नई कोमल कोंपलों संग
लेता है जन्म वह।
खेलता है प्रकृति की गोद में,
भर उमंग, मोद में।
झूलता है डाली के फूलों में
कल कल कल,
खिल खिल खिल
हँसता है सरिता के कूलों में।
सावन सुहावन, मनभावन जब
आता है यौवन का,
झूम उठते हैं वृक्ष,
लगता है वर्ष के यौवन की
मदमाती, बलखाती देह
ले रही है अँगड़ाई, और
जीवन की सरिता की धार में
एक नया उठ रहा खुमार है, प्यार है।
एक नव नूतन उमंग है,
एक नव नूतन तरंग है।
लतिकाएं लिपट कर पेड़ों से,
बिजलियाँ मेघों से,
सरिताएं कूलों से,
करती हैं केलि जब
होती है रस की वर्षा अमन्द
झर झर झर झर झर झर ।
होता रस-मग्न है कण कण सब,
होता रस-मग्न है, तृण तृण सब,
होता रस-मग्न जन-जीवन सब।
आता है शरद और शीत फिर
पड़ने लगती है बर्फ।
काली घटा-से घुँघराले बाल काले
मानो होने लगते हैं श्वेत,
झड़ने लगते हैं पात,
विरिधापन आता है यों वर्ष का, साल का।
ऐसे ही समय पर,
आता है हमारा यह त्यौहार होली का
जिसमें हम सब मिल
बीतते समय के, साल के
निर्जीव शव को,
पूजन कर,
अर्चन कर,
वन्दन कर
हर्ष से जलाते,
खूब खुशियाँ मनाते हैं।
भारत की मिट्टी से
हमको मिली है यह दृष्टि
और हमको मिला है यह दर्शन
कि मृत्यु नहीं चिन्तनीय, शोचनीय
वह तो है वंदनीय।
क्योंकि वह जीवन का लक्षण है
नूतन जीवन का एक नूतन आवाहन है।
जैसे यह देह छोड़
फटे औ’ पुराने वस्त्र
धारण कर लेती नये,
वैसे ही आत्मा, जीव यह,
जो कि हर कण में है,
जो कि हर तृण में है,
और जो कि अजर, अमर, अविनश्वर है
नश्वर शरीर छोड़
धारण कर लेता है
नूतन तन रूपी वस्त्र दूसरा।
इसलिए
जो कुछ हुआ जीर्ण और शीर्ण है;
इसलिए
जो कुछ हुआ व्यर्थ, सार हीन है
उससे हो मोह क्यों? ममता क्यों?
उसका हम ढोएं बोझ-भर क्यों?
उसको जल जाने दें।
आने दें नया वर्ष
नया हर्ष ले करके।
जिसका हुआ है समय पूरा
उसे जाने दें।
और नये समय का, संवत् का
रूप और रंग नया आने दें।
14.3.60