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"नागार्जुन / विष्णुचन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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11:50, 17 मार्च 2017 के समय का अवतरण

नागार्जुन! एक इतिहास है
बेतरतीब या कुतिया के पिल्लांे से घिरी?

जब से हिजड़ों से मैं नफरत करने लगा हूँ या
भंडुओं के समाजवाद के सारे अड्डे
छोड़ दिए हैं मैंने। नागार्जुन अचानक एक घर से बाहर निकलकर
कान में कहते हैं: यहीं पड़ी हैं तैंतीस साल से
एक वेश्या: नौकरी पेशा जोकरों या उठाईगीर राजनीतिज्ञों के साथ!
वही है अपना तंत्र (प्रजा या गण)...।

विलासिता के अतीत से वर्तमान के पक्के महाजनी महाल तक
नागार्जुन कई बार आए, गए हैं। क्रोध में कई बार चीखें हैं।
अपने कपड़े फाड़ कर नंगई के कई चेहरे
चढ़ाए और फेंके हैं उसने इसी देश में।

जब कभी तरतीबवार सागर फेंकता है कफ़न। वह
नंगी लाशों के पास बैठ जाते हैं आलथी-पालथी मार कर।- कहो
प्रेत कैसे मरे गोली खाकर या लात?- कहो यार! सच-सच जरा हलफ
उठाकर कहो-मारा है दुश्मन की गाँड पर लात या अकाल में
भूनकर खाया है दुश्मन ने तुम्हारा गोश्त? कहो यार! शर्म-वर्म
छोड़ो! हिजड़ों का गहना है बेहूदा शर्म। इज्जतदार मार कर मरता है। सच-सच
कहो: यम पास आकर क्या रोया था गरीबी पर? सच-सच कहो: चटकल
मंे कितने मजदूरों ने घेरा था फौज को? मछली की जात की कितनी
कन्याओं का किया था नाश्ता इस बार अंतरिम सुरक्षा के
देशी तानाशाह ने?
हिमालय ने उड़ते हैं हंस या संसद में लड़ते हैं कौए!
वह कभी कमल से जलाशय में हँसते हैं,
कभी कौए की जात के लम्पट एक नेता को बैठाकर पूछते हैं:
‘सरमायेदारों ने कितने में खरीदा है इस बार दल को?’
रूसी या अमरीकी जाल-बट्टे के बीच, खजड़ी बजाकर वह
चढ़ाते हैं गाली तानाशाह पर! गोली से मरे उस फटी विवाई के
रिक्शा-चालक के घर बैठकर हँसते हैं बेवजह
उसकी बालिका के साथ।

अभी वह नेता था अभी अभिनेता हैं
कहाँ है उसके हर रूप का असली अक्स?
मैंने उसे गंडक-सा दौड़ते हुए देखा है जुलूस में!
लड़ते हुए देखा है छोटे-बड़े मुद्दे पर चोर से।
हँसते हुए कालिदास के साथ देखा है तराशी हुई बादलों की
आकृतियाँ गढ़ते हुए। शब्द, रूप, रस, गंध स्पर्श के
पाँच दरवाजे खोले खड़ा हो जैसे सहस्रनेत्र भारतवर्ष!

बेतरतीब जिंदगी में रंगहीन निचला वर्ग!
गाता है गीत जब! वह झटपट बाँहों में बाँहें थाम नाचते हैं।
वृत्ताकार सागर है कुतिया:
पसरी है देश के सरहद पर। रतिनाथ। बलचनमा।
चारों-ओर से उस पर लोट-पोट होते हैं
मैं सोचा करता हूँ। सागर है कुतिया या बाबा हैं
भारतवर्ष?

पूछ रहे थे कल बाबा पॉब्लो नेरूदा से: एलेंडे को चीले में
साबित ही लील गये अमरीकी?
पॉब्लो की भूलों पर उँगली रख चीले की जनता ही पूछ रही थी
सवाल: कैसे लड़खड़ा कर गिरे महाकवि मध्यवर्ग के मल में?
पॉब्लो की पीठ पर हाथ रख कहा था बाबा ने: यार!
लड़ने वाला ही गिरा करता है जंग में! तुमने कब कहा था: वाम भूखंड
के तुम अंति छंद हो?
गलतियों से ही हमने सीखा है मादक है, मोहक है, अपने देश की गंध!
अक्सर मैं बाबा को सागर या कुतिया को पिता और इतिहास को दोस्त
की तरह जब अंतिम युद्ध में जातिहीन देखता हूँ: मेरा कवि लाल फौज
का चीनी सिपाही बन जाता है।
अक्सर मैं बाबा से पूछता हूँ: सरहद पर गाली देकर किसको गिराया था?
क्रांति का माओ तो खड़ा है आज तक जमीन पर!
अक्सर मैं बाबा से पूछता हूँ: तानाशाह सूरज के आने पर आता है
सड़ी हुई बस्ती को लूटने! खून तो सागर के पिल्लों का होता है मिलों में?
झूठी आज़ादी पर चिमटा बजाता है नौटंकी का संत सट्टाबाजार में।
अक्सर मैं बाबा को दोस्त की तरह बैठाकर पूछता हूँ: लड़ता है सागर?
या पिल्ला? या जोकर इतिहास में?
बाबा कहीं छोटे हैं: सागर-तट पर दबी हुई शिला।
बाबा कहीं खोटा दर्शन हैं: मायूस जीवन का हाहाकार।
बाबा कहीं औरत हैं: रतिनाथ की चाची, उगनी: बेड़ियों को तोड़ती
आवाज आज़ादी की।
बाबा अगर घटिया कहीं लगते हैं, घटिया समाज में बेरकेर दोनों ही
होते हैं। बेर फल देता है: चिकनी भूलों को केर हवा में लहरा कर
खुद टूट जाता है।

अक्सर मैं बाबा को शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श का पाँच दरवाजा
खोले सहस्रनेत्र भारतवर्ष कहता हूँ।
अक्सर मैं बाबा की भूलों से लड़ता हूँ।
अक्सर मैं बाबा के साथ-साथ बढ़ता हूँ उड़ते हुए हंस-सा
सागर से सरोवर तक।
अक्सर मैं बाबा के भारत का सपना देखा करता हूँ।

-चार कविताएं से