"बिहारी सतसई / भाग 4 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर
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नव नागरि तन मुलुक लहि जोबन आमिर जोर।
घटि बढ़ि तैं बढ़ि घटि रकम करीं और की और॥31॥
आमिर = हाकिम, शासक। जोर = जबरदस्त। रकम = जमाबन्दी।
नागरी (नायिका) ने शरीररूपी नवीन देश को पाकर यौवन रूपी जबरदस्त हाकिम ने (कहीं) बढ़ती को घटाकर और (कहीं) घटी को बढ़ाकर जमाबन्दी और की और ही कर दी-कुछ-का-कुछ बना दिया।
नोट - भावार्थ यह है कि किसी अंग को घटा दिया- जैसे, कटि आदि- और किसी अंग को बढ़ा दिया- जैसे, कुच आदि। जब कोई राजा नया देश प्राप्त करता है, तब वह उलट-फेर करता ही है।
लहलहाति तन-तरुनई लचि लगि-लौं लफि जाइ।
लगे लाँक लोइन भरी लोइनु लेति लगाइ॥32॥
लचि = लचककर। लगि = लग्गी, बाँस की पतली शाखा। लौं = समान। लफि जाय = झुक जाती है। लाँक (लंक) = कमर। लोइन = लावण्य, सुन्दरता। लोइनु = लोचन, आँख।
शरीर में जवानी उमड़ रही है (जिसके बोझ से वह) नायिका बाँस की पतली छड़ी-सी लचककर झुक जाती है। उसकी कमर लावण्य से भरी हुई दीखती है और (देखने वालों की) आँखों को (बरबस) अपनी ओर खींच लेती है।
सहज सचिक्कन स्यामरुचि सुचि सुगंध सुकुमार।
गनतु न मनु पथु अपथु लखि बिथुरे सुथरे बार॥33॥
सहज = स्वाभाविक। स्यामरुचि = काले। सुचि = पवित्र। बिथुरे = बिखरे हुए। गनतु = समझता या विचारता है। अपथु = कुपंथ। सुथरे = स्वच्छ, सुन्दर।
स्वभावतः चिकने, काले, पवित्र गंधवाले और कोमल- ऐसे बिखरे हुए सुन्दर बालों को देखकर मन सुमार्ग और कुमार्ग कुछ भी नहीं विचारता।
वेई कर ब्यौरनि वहै ब्यौरो कौन विचार।
जिनहीं उरझ्यौ मो हियै तिनहीं सुरझे बार॥34॥
वेई = वे ही। ब्यौरनि = सुलझाने का ढंग। ब्यौरो = ब्यौरा, भेद। उरझयौ = उलझा। बार-बाल, केश। सुरझे = सुलझा रहे हैं।
वे ही हाथ हैं, बाल सुझाने का ढंग भी वही है। (हे मन!) विचार तो सही कि भेद (रहस्य) क्या है? (मालूम होता है) जिन (नायक) से मेरा हृदय उलझा हुआ है, वे ही बाल भी सुलझा रहे हैं।
नोट - नायक प्रेमाधिक्य के कारण स्त्री (नाइन) का वेष बनाकर नायिका के बाल सुलझा रहा है। इसी बात पर नायिका चिंता कर रही है कि हो-न-हो, वे ही इस स्त्री रूप में हैं।
कर समेटि कच भुज उलटि खएँ सीस-पटु डारि।
काकौ मनु बाँधै न यह जूरा बाँधनिहारि॥35॥
कच = केश। समेटि = गुच्छे की तरह सुलझाकर । खएँ = पखौरा। सीसपट = सिर का आँचल। काको = किसका। जूग = जूड़ा, केश-ग्रंथि, वेणी का कुण्डलाकार बन्धन। बाँधनिहारि = बाँधनेवाली।
बालों को हाथों से समेट, भुजाओं को उलटे और सिर के आँचल को अपने पखौरों पर डाले हुई यह जूड़ा बाँधनेवाली भला किसका मन नहीं बाँध लेती?
छुटे छुटावत जगत तैं सटकारे सुकुमार।
मन बाँधत बेनी बँधे नील छबीले बार॥36॥
सटकारे = छरहरे, लम्बे। छुटाबत = छुड़ाते हैं।
लम्बे और कोमल (बाल) खुले रहने पर संसार से छुड़ाते हैं-सांसारिक कामों से विमुख बनाते हैं-और ये ही काले सुन्दर बाल वेणी के रूप में बँध जाने पर मन को बाँधते हैं।
नोट - लटों में कभी दिल को लटका दिया।
कभी साथ बालों के झटका दिया॥ मीरहसन
कुटिल अलक छुटि परत मुख बढ़िगौ इतौ उदोत।
बंक बकारी देत ज्यौं दामु रुपैया होत॥37॥
कुटिल = टेढ़ी। अलक = केश-गुच्छ, लट। उदोत = कान्ति, चमक। बंक = टेढ़ी। दाम = दमड़ी। छुटि परत = बिखरकर झूलने लगता है। बकारी = टेढ़ी लकीर जो किसी अंक के दांई ओर उसके रुपया सूचित करने के लिए खींच दी जाती है।
मुख पर टेढ़ी लट के छुट पड़ने से (नायिका के मुख की) कान्ति वैसे ही बढ़ गई है, जैसे टेढ़ी लकीर (बिकारी) देने से दाम का मोल बढ़कर रुपया हो जाता है।
नोट - दाम) 1 यों लिखते हैं और रुपया 1) यों। अभिप्राय यह है कि वही बाल स्वाभाविक ढंग से पीछे रहने पर उतना आकर्षित नहीं होता जितना उलटकर मुख पर पड़ने से होता है। जैसे, बिकारी अंक के पीछे रहने पर दाम का सूचक है और आगे रहने पर रुपये का।
ताहि देखि मनु तीरथनि बिकटनि जाइ बलाइ।
जा मृगनैनी के सदा बेनी परसतु पाइ॥38॥
परसत = स्पर्श करती है। बेनी = चोटी, केश-पाश (पक्षान्तर-तीर्थराज त्रिवेणी)। बलाइ = बलैया, नौजी। बिकटनि = विकट, दुर्गम।
जिस मृगनयनी के पाँवों को सदा वेणी (त्रिवेणी) स्पर्श करती है-जिसकी लम्बी चोटी सदा पाँवों तक झूलती रहती है-उसे देखकर मन विकट तीर्थों (का अटन करने) को बलैया जाय!
नीकौ लसतु लिलार पर टीकौ जरितु जराइ।
छविहिं बढ़ावतु रवि मनो ससि-मंडल मैं आइ॥39॥
जरितु = जड़ा हुआ। जराइ = जड़ाव। टीकौ = माँगटीका, शिरोभूषण। ललाट पर जड़ाऊ टीका खूब शोभता है मानो चन्द्रमंडल में आकर सूर्य (चन्द्रमा की) शोभा बढ़ा रहा हो।
नोट - नायिका का ललाट चंद्र-मंडल है और जड़ाऊ टीका सूर्य। चंद्र-मंडल में सूर्य के आते ही चंद्रमा की शोभा नष्ट हो जाती है। किन्तु यहाँ तो रत्न-खचित टीके से मुखचंद्र की छटा कुछ और ही हो गई है। कैसी बारीकबीनी है!
सबै सुहाएईं लगैं बसैं सुहाएँ ठाम।
गोरैं मुँह बेंदी लसै अरुन पीत सित स्याम॥40॥
बेंदी = ललाट पर स्त्रियाँ गोल बिन्दु रचती हैं। सित = उजला। ठाम = स्थान। सोहाये = सुन्दर, सुहावने।
सुन्दर स्थान पर विराजने से (अच्छे-बुरे) सभी सुहावने ही लगते हैं। (नायिका के) गोरे मुख पर लाल, पीली, उजली और नीली (सभी रंगों की) बेंदी अच्छी ही लगती है।