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"बिहारी सतसई / भाग 5 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर

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10:31, 19 मार्च 2017 के समय का अवतरण

कहत सबै बेंदी दियै आँकु दसगुनौ होतु।
तिय लिलार बेंदी दियै अगिनितु बढ़तु उदोतु॥41॥

आँकु = अंक। लिलार = ललाट। अगिनितु = बेहद। उदोतु = कान्ति।

सभी कहते हैं कि बिन्दी देने से अंक का मूल्य दसगुना बढ़ जाता है। (किन्तु) स्त्रियों के ललाट पर बेंदी देने से तो (उसकी) कान्ति बेहद बढ़ जाती है।


भाल लाल बेंदी छए छुटे बार छबि देत।
गह्यौ राहु अति आहु करि मनु ससि सूर समेत॥42॥

भाल = ललाट। छुटे = बिखरे। अति आहु करि = बहुत साहस या ललकार करके। ससि = चंद्रमा। सूर = सूर्य।

लाल बेंदी वाले ललाट पर बिखरे बाल भी शोभा देते हैं। (ऐसा मालूम होता है) मानो चन्द्रमा ने, सूर्य के साथ, अत्यन्त साहस या ललकार करके राहु को पकड़ा है।

नोट - यहाँ ललाट चन्द्रमा, लाल बेंदी प्रातःकाल का सूर्य और केश राहु है।


पाइल पाइ लगी रहै लगौ अमोलिक लाल।
भौंडर हूँ की भासि है बेंदी भामिनि-भाल॥43॥

पाइल = पाजेब, नूपुर, पदमंजीर। पाइ = पैर। अमोलिकि = अनमोल, अमूल्य। लाल = रत्न। भौंडर = अबरक। भासिहै = शोभा देगी। भामिनो = स्त्री, नायिका।

अनमोल जवाहरात से जड़े होने पर भी पाजेब पैरों में ही पड़ी रहती है। किन्तु (तुच्छ) अबरक की होने पर भी बेंदी नायिका के ललाट पर ही शोभा देगी।


भाल लाल बेंदी ललन आखत रहे बिराजि।
इंदुकला कुज मैं बसी मनौ राहु-भय भाजि॥44॥

आखत = अक्षत, चावल। इंदुकला = चन्द्रमा की कला। कुज = मंगल। भाजि = भागकर।

अहो ललन! उस नायिका के ललाट की लाल बेंदी में अक्षत विराज रही है मानो राहु के भय से भागकर चन्द्रमा की कला मंगल में आ बसी हो।

नोट - यहाँ उजली अक्षत चन्द्रमा की कला है, लाल बेंदी मंगल है, (केश राहु हैं)। मंगल का रंग कवियों ने लाल माना है। बेंदी में अक्षत लगाने की प्रथा मारवाड़ में पाई जाती है। बिहारीलाल जयपुर में रहते भी तो थे।


मिलि चन्दन बेंदी रही गौरैं मुँह न लखाइ।
ज्यौं ज्यौं मद-लाली चढ़ै त्यौं त्यौं उघरति जाइ॥45॥

मद-लाली = मस्ती की लाली, जवानी की उमंग या ऐंठ की लाली।

चन्दन की उजली बेंदी मुख की गोराई में (एकदम) मिल गई है, वह गोरे मुख पर दीख नहीं पड़ती- चन्दन की उज्ज्वलता गोराई में लीन हो गई है। किन्तु ज्यों-ज्यों (उस नायिका के मुख पर) मस्ती की लाली चढ़ती जाती है, (वह बेंदी) साफ खुलती चली जाती है।


तिय-मुख लखि हीरा जरी बेंदी बढ़ैं बिनोद।
सुत-सनेह मानौ लियौ बिधु पूरन बुधु गोद॥46॥

बिधु पूरन = पूर्ण चन्द्रमा। बिनोद = प्रसन्नता, आनन्द। बुधु = बुध, चंद्रमा के पुत्र।

स्त्री (नायिका) के मुख पर हीरा जड़ी हुई बेंदी देखकर आनन्द की वृद्धि होती है मानो पुत्र के स्नेह से पूर्ण चन्द्रमा ने बुध को गोद लिया हो।

नोट - यहाँ नायिका का मुख पूर्ण चन्द्र है और हीरा-जड़ी बेंदी बुध।


गढ़-रचना बरुनी अलक चितवनि भौंह कमान।
आघु बँकाई ही बढ़े तरुनि तुरंगम तान॥47॥

बरुनी = पलक के बाल। अलक = मुखड़े पर लटके हुए लच्छेदार केश, वंकिम लट। कमान = धनुष। आघु = (संस्कृत आर्ह) मूल्य, आदर। बँकाई = टेढ़ापन। तुरंगम = घोड़ा।

गढ़ की रचना, पलक के बाल, लट, चितवन, भौंह, धनुष, नवयुवती, घोड़ा और तान- (इन सब) का मूल्य (आदर) टेढ़ाई से ही बढ़ता है।


नासा मोरि नचाइ जे करी कका की सौंह।
काँटे सी कसकैं ति हिय गड़ी कँटीली भौंह॥48॥

नासा = नाक। मोरि = मोड़कर, सिकोड़कर। जे = जो (भौंह)। सौंह = शपथ, कसम। कसकैं = सालती है, टीसती है।

नाक सिकोड़कर जिस (भौंह) को नचाकर (उस नायिका ने) काका की कसम खाई। (उस समय की) उसकी वह कटीली भौंह (अभी तक) हृदय में गड़ी हुई काँटे-सी खटक रही है-चुभ रही है।


खौरि-पनिच भृकुटी-धनुषु बधिकु-समरु तजि कानि।
हनतु तरुन-मृग तिलक-सर सुरक-भाल भरि तानि॥49॥

खौरि = ललाट पर चंदन का आड़ा टीका, ललाट पर चंदन लेपकर उँगलियों से खरोंचने पर खौर-तिलक बनता है। पनिच = धनुष की डोरी, प्रत्यंचा। समरु = समर = कामदेव। कानि = मर्यादा। तिलक = ललाट का खड़ा टीका। सुरक = तिलक का वह भाग जो नाक पर लगा होता है। भाल = तीर की गाँसी। भरि तानि = खूब तानकर।

खौर-रूपी प्रत्यंचा को भौंह-रूपी धनुष पर चढ़ाकर, व्याधा-रूपी कामदेव, (अपनी) मर्यादा छोड़, सुरक-रूपी गाँसी वाले तिलक-रूपी शर को, खूब खींचकर, नवयुवक-रूपी मृगों को मारता है।


रस सिंगार मंजनु किए कंजनु भंजनु दैन।
अंजनु-रंजनु हूँ बिना खंजनु गंजनु नैन॥50॥

शृंगार-रस में गोते लगाये हुए नेत्र कमलों के अभिमान तोड़नेवाले हैं और अंजन लगाये हुए भी वे खंजनों का घमंड चूर करते हैं-कमलों को परास्त और खंजरीटों को अपमानित करते हैं।