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"बिहारी सतसई / भाग 7 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर

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10:34, 19 मार्च 2017 के समय का अवतरण

सबही त्यौं समुहाति छिनु चलति सबनु दै पीठि।
बाही त्यौं ठहराति यह कविलनबी लौं दीठि॥61॥

समुहाति = सामना करना, टकराना। कविलनबी = कम्पास के समान एक प्रकार का यंत्र, जिसकी सूई सदा पश्चिम की ओर रहती है, चोर पकड़ने की वह कटोरी जो मंत्र पढ़कर चलाई जाती है। चलति सबनि दै पीठि = सबका तिरस्कार करती चली जाती है।

किबलनुमा की सूई के समान उसकी यह नजर सभी के शरीर से क्षणभर के लिए टकराती है, फिर सभी से विमुख होकर चल पड़ती है, और उसके-अपने प्रेमिक के - रूप पर आकर ठहरती है।


कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं नैननु ही सब बात॥62॥

कहत = कहते हैं, इच्छा प्रकट करते हैं। नटत = नाहीं-नाहीं करते हैं। रीझत = प्रसन्न होते हैं। खिझत = खीजते हैं, रंजीदा होते हैं, रंजीदा होते हैं। खिलत = पुलकित होते हैं। लजियात = लजाते हैं।

कहते हैं, नाहीं करते हैं, रीझते हैं, खीजते हैं, मिलते हैं, खिलते हैं और लजाते हैं। (लोगों से) भरे घर में (नायक-नायिका) दोनों ही, आँखों ही द्वारा बातचीत कर लेते हैं।

अँग = प्रकार। सुघर = सुचतुर, सुदक्ष। नाइक = नाचना-गाना सिखानेवाला उस्ताद। पातुर = वेश्या। ‘राय’ वेश्याओं की उपाधि- जैसे प्रवीणराय वेश्या, जो केशवदास की साहित्यिक चेली थी। रस-जुत = रसीले। लेत अनन्त गति = अनेक प्रकार के पैंतरे और काँटछाँट करती है, तरह-तरह की भावभंगी ले थिरकती है।

प्रेम-रूपी उस्ताद ने सिखाकर उसे सब प्रकार से सुदक्ष बना रक्खा है। (फलतः वह आँखों की) पुतली-रूपी वेश्या रसों से भरे हुए नाना प्रकार के हाव-भाव दिखा रही है।


कंज नयनि मंजनु किये बैठी व्यौरति बार।
कच अँगुरी बिच दीठि दै चितवति नन्दकुमार॥64॥

ब्यौरति = सुलझाती है। कच = बाल, केश। दीठि = दृष्टि, नजर।

कमलनयनी (नायिका) स्नान कर बैठी हुई अपने बालों को सुलझा रही है और बालों तथा अँगुलियों के बीच से कृष्णजी को देखती भी है। (लोग जानते हैं कि वह बाल सँवार रही है, इधर बालों और उँगलियों के बीच इशारे चल रहे हैं!)


डीठि-बरत बाँधी अटनु चढ़ि धावत न डरात।
इतहिं-उतहिं चित दुहुन के नट-लौं आवत-जात॥65॥

ठीठि = नजर। बरत = रस्सी। अटनि = कोठे। लौं = समान।

कोठों पर बँधी दृष्टि-रूपी रस्सी पर चढ़कर दौड़ते हैं, (जरा भी) डरते नहीं। दोनों के चित्त नट के समान इधर-से-उधर (बेधड़क) आते-जाते हैं।

नोट - प्रेमिक और प्रेमिका अपनी-अपनी अटारी पर खड़े आँखें लड़ा रहे हैं। कवि ने उसी समय की उनके चित्त की दिशा का वर्णन किया है।


जुरे दुहुन के दृग झमकि रुके न झीनैं चीर।
हलुकी फौज हरौल ज्यौं परै गोल पर भीर॥66॥

झीने = महीन, बारीक। चीर = साड़ी। हरौल = हरावल, सेना का अग्रभाग। गोल = सेना का मुख्य भाग। झमकि = उछलकर या नाचकर। भीर = चोट, हमला।

दोनों की आँखें ललक के साथ बढ़कर जुट गईं, बारीक साड़ी (के घूँघट) में वे न रुकीं, जिस प्रकार सेना के अग्रभाग में हलकी फौज रहने से मुख्य भाग पर ही भीड़ आ पड़ती है।


लीनैं हूँ साहस सहसु कीनैं जतनु हजारु।
लोइन लोइन-सिंधु तन पैरि न पावत पारु॥67॥

लोइन = आँख। लोइन = लावण्य, सुन्दरता। पैरि = तैरकर।

हजार यत्न करने और हजार साहस रखने पर भी ये आँखे (तुम्हारे) शरीर-रूपी लावण्य-सागर को तैरकर पार नहीं पा सकतीं-तुम्हारा शरीर इतने अगाध-लावण्य से परिपूर्ण है!


पहुँचति डटि रन-सुभट लौं रोकि सकैं सब नाहिं।
लाखनुहूँ की भीर मैं आँखि उहीं चलि जाहिं॥68॥

रन-सुभट = लड़ने में वीर।

लड़ाई के वीर योद्धा के समान डटकर पहुँच जाती हैं-लोग उन्हें नहीं रोक सकते। लाखों की भीड़ में भी (उसकी) आँखें उस (नायक की) ओर चली ही जाती हैं।


गड़ी कुटुम की भीर मैं रही बैठि दै पीठि।
तऊ पलकु परि जाति इत सलज हँसौंही डीठि॥69॥

पलकु = पल+एकु = एक पल के लिए। इत = यहाँ, इस ओर। हँसौंही = प्रसन्न, विनोदिनी।

कुटुम्ब की भाड़ में गड़ी हुई-चारों ओर से परिवारवालों से घिरी हुई- (वह नायिका नायक की ओर) पीठ देकर बैठी है। तो भी एक क्षण के लिए (उसकी) लजीली और विनोदिनी दृष्टि इसकी ओर पड़ ही जाती है।


भौंह उँचै आँचरु उलटि मौरि मोरि मुँह मोरि।
नाठि-नीठि भीतर गई दीठि दीठि सों जोरि॥70॥

उँचै = ऊँचा करके। मोरि = मौलि, सिर। मोरि = झुकाकर। नीठि-नीठि = जैसे तैसे, मुश्किल से। नीठि नीठि गई = मुश्किल से धीरे-धीरे गई।

भौंह ऊँची कर, आँचर उलट, सिर झुका और मुँह मोड़कर (वह नायिका) नजर-से-नजर मिलाती हुई धीरे-धीरे (घर के) भीतर (चली) गई।