"बिहारी सतसई / भाग 14 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर
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जरी-कोर गोरै बदन बरी खरी छवि देखु।
लसति मनौ बिजुरी किए सारद-ससि परिबेखु॥131॥
जरी-कोर = जरी की किनारी। बरी = प्रज्वलित होती। खरी = अधिक। बिजुरी = बिजुली। सारद = शरद ऋतु के। परिबेखु = मण्डल, घेरा।
गोरे मुखड़े पर (साड़ी में टँकी) जरी किनारी इस अत्यंत उद्दीप्त शोभा को तो देखो। (मालूम पड़ता है) मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा को चारों ओर से घेरे हुए बिजली सोह रही हो।
नोट - यहाँ जरी की किनारी बिजली, मुखमंडल शरद ऋतु का चन्द्रमंडल है। विद्युत्मण्डल से घिरा हुआ चन्द्रमण्डल! अद्भुत कवि-कल्पना है।
देखी सो न जुही फिरति सोनजुही-से अंग।
दुति लपटनु पट सेतु हूँ करति बनौटी-रंग॥132॥
सोनजुही की-सी देहवाली उस (नायिका) को तो तुमने देख न ली (अर्थात तुमने भी देखी) जो (अपने सुनहले शरीर की) आभा की लपटों से उजले वस्त्र को भी (पीले) कपासी रंग का बनाती हुई (वाटिका में) घूमती है।
नोट - झीन बसन महँ झलकइ काया।
जस दरपन महँ दीपक छाया॥
तीज-परब सौतिनु सजे, भूषन बसन सरीर।
सबै मरगजे-मुँह करी इहीं मरगजैं चीर॥133॥
तीज-परब = भादो बदी 3 का त्योहार। मरगजैं = मलिन, रौंदी हुई। चीर = साड़ी।
तीज के व्रत के दिन सौतिनों ने गहनों और कपड़ों से अपने शरीर को सिंगारा, किन्तु उसने अपनी (उस रति-मर्दित) मलिन साड़ी से ही सबका मुँह मलिन कर दिया।
नोट - पति-सहवास में रौंदी हुई उसकी मलिन साड़ी देखकर सौतों ने यह जाना कि रात में इसने प्यारे के साथ केलि-रंग किया है।
पचरँग-रँग बेंदी खरी उठी जागि मुखजोति।
पहिरैं चोर चिनौटिया चटक चौगुनी होति॥134॥
चिनौटिया चीर = कई रंगों से रँगी लहरदार चुनरी। चटक = चमक।
पचरँगे रंग की बेंदी बनी है। (उसे लगाते ही) आबदार मुख की ज्योति (और) जगमगा उठी। (उसपर) रंग-बिरंगी चुनरी पहनने से चमक (और भी) चौगुनी हो जाती है।
बेंदी भाल तँबोल मुँह सीस सिलसिले बार।
दृग आँजे राजै खरी एई सहज सिंगार॥135॥
भाल = ललाट। तँबोल = पान। सिलसिले = सजाये हुए, चिकनाये हुए। बार = केश। आँजे = काजल लगाये। खरी = अत्यन्त। एई = इसी। सहज = स्वाभाविक।
ललाट में बेंदी, मुख में पान, सिर पर सजाये हुए बाल और आँखों में काजल लगाये-इसी स्वाभाविक शृंगार से (नायिका) अत्यन्त शोभ रही है।
नोट - आस्यं सहास्यं नयनं सलास्यं सिन्दूरबिन्दूदयशोभिभालम्।
नवा च वेणी हरिणीदृशश्चेदन्यैरगण्यैरपि भूषणैः किम्॥
हौं रोझी लखि रीझिहौ छबिहिं छबीले लाल।
सोन जुही-सी होति दुति मिलत मालती-माल॥136॥
रीझिहौ = मोहित (मुग्ध) हो जाओगे। सोनजुही = पीली चमेली।
हे छबीले लाल-रसिया श्रीकृष्ण! मैं देखकर मोह गई हूँ, तुम भी (उसकी) शोभा देख मोह जाओगे। (कैसी स्वाभाविक कान्ति है!) मालती की (उजली) माला (उसके गोरे शरीर से) मिलकर सोनजुही के समान (पीली) द्युति की हो जाती है।
नोट - तुलसीदास का एक बरबै भी कुछ इसी तरह का है-
सिय तुअ अंग रंग मिलि अधिक उदोत।
हार बेलि पहिरावों चंपक होत॥
झीने पट मैं झुलमुी झलकति ओप अपार।
सुरतरु की मनु सिंधु मैं लसति सपल्लव डार॥137॥
झीने = महीन, बारीक। पट = वस्त्र। झुलमुली = कान में पहनने का कनपत्ता नामक गहना, चकाचौंध करती हुई। ओप = कान्ति। सुरतरु = कल्पवृक्ष। लसत = शोभता है। डार = शाखा।
महीन कपड़े में (चकाचौंध करती हुई) कनपत्ते की अपार कान्ति झलमला रही है। (वह ऐसा मालूम होता है) मानो कल्पवृक्ष की पल्लव-युक्त शाखा शोभा पा रही हो।
फिरि फिरि चितु उतहीं रहतु टुटी लाज की लाब।
अंग अंग छबि-झौंर मैं भयौ भौंर की नाव॥138॥
लाव = लंगर की रस्सी। झौंर = समूह।
दोहा संख्या 139 और 140 यहाँ जोड़ने बाकि हैं