भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बिहारी सतसई / भाग 21 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिहारी |अनुवादक= |संग्रह=बिहारी स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

11:55, 19 मार्च 2017 के समय का अवतरण

चकी जकी-सी ह्वै रही बूझैं बोलति नीठि।
कहूँ डीठि लागी लगी कै काहू की डीठि॥201॥

चकी = चकित, आश्चर्यित। जकी = स्तंभित, किंकर्त्तव्यविमूढ। नीठि = कठिनता से, मुश्किल से। कहूँ = कहीं, किसी जगह। कै = या। काहू = किसी की।

आश्चर्यित और स्तंभित-सी हो रही है। पूछने पर भी मुश्किल से बोलती है। (मालूम होता है) इसकी नजर कहीं जा लगी है या किसी और ही की नजर इसे लग गई है-या तो यह स्वयं किसी के प्रेम के फंदे में फँसी है, या किसीने इसे फँसा लिया है।


पिय कैं ध्यान गही गही रही वही ह्वै नारि।
आपु आपुही आरसी लखि रीझति रिझवारि॥202॥

गही-गही = पकड़े। आरसी = आईना। आपु आपु ही = अपने-आप। रिझवारि = मुग्धकारिणी।

प्रीतम के ध्यान में तत्कालीन रहते-रहते नायिका वही हो रही-उसे स्वयं प्रीतम होने का भान हो गया। (अतएव) वह रिझानेवाली आप ही आरसी देखती और अपने-आपपर ही रीझती है-अपने-आपको प्रीतम और अपने प्रतिबिम्ब को अपनी मूर्त्ति समझकर देखती और मुग्ध होती है।


ह्याँ ते ह्वाँ ह्वाँ ते इहाँ नेकौ धरति न धीर।
निसि-दिन डाढ़ी-सी फिरति बाढ़ी-गाढ़ी पीर॥203॥

ह्याँ = यहाँ। ते = से । ह्वाँ = वहाँ । नेकौ = जरा भी। डाढ़ी = एक गानेवाली जाति, जो सदा गाँवों में नाच-नाचकर बधाई गाया करती है; पँवरिया। डाढ़ी = दग्ध, जला हुआ। कहीं ढाढ़ी भी पाठ है।

यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ (आती-जाती रहती है) जरा भी धैर्य नहीं धरती। कठिन पीड़ा बढ़ गई है (जिस कारण) रात-दिन पँवरियों के समान (या जली हुई-सी इतस्ततः) घूमती रहती है।


समरस समर सकोच बस बिबस न ठिकु ठहराइ।
फिरि फिरि उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उझकति जाइ॥204॥

समरस = समान रस, समान भाव। समर = स्मर = कामदेव। ठिकु ठहराइ = ठीक ठहरना, स्थिर रहना। उझकति = उचक-उचककर देखती है। दुरति = छिपती है।

समान भाव से कामदेव और लज्जा के वश में (पड़ी है) विवश होकर कहीं भी स्थिर नहीं रह सकती। बार-बार उझक-उझककर देखती है, फिर छिप जाती है और छिप-छिपकर उझकती जाती है-अपने आभूषणों को बजाती जाती है।


उरु उरझयौ चित-चोर सौं गुरु गुरुजन की लाज।
चढ़ैं हिंडोरै सैं हियैं कियैं बनै गृहकाज॥205॥

उर = हृदय। गुरु = भारी। गुरुजन = बड़े-बूढ़े।

हृदय (तो) चितचोर से उलझा हुआ है और गुरुजनों की लज्जा भी भारी है; (अतएव) हिंडोले पर चढ़े हृदय से-दुतरफा खिंचे हुए मन से-घर का काम करते ही बनता है।


सखी सिखावति मान-बिधि सैननि बरजति बाल।
हरुए कहि मो हीय मैं सदा बिहारीलाल॥206॥

मान-बिधि = मान करने की रीति। हरुए = धीरे-धीरे।

सखी मान करने की रीति सिखलाती है, (तो) बाला (नायिका) इशारे से उसे मना करती है कि (ये मान की बातें) धीरे-धीरे कह; (क्योंकि) मेरे मन में सदा बिहारीलाल वास करते हैं, (ऐसा न हो कि वे कहीं सुन लें और रूठ जायँ!)

नोट - इसी भाव का एक श्लोक ‘अमरुक शतक’ में यों है-

मुग्धे मुग्धतयैव नेतुमखिलः कालः किमारभ्यते।
मानं ध्त्स्व धृतिं दधान ऋजुतां दूरि कुरु प्रेयसि॥
सख्येवं प्रतिबोधिता प्रतिवचस्तामाह भीतानना।
नीचैःशंस हृदि स्थितोहि ननु मे प्राणेश्वरः श्रोष्यति॥


उर लीनै अति चटपटी सुनि मुरली धुनि धाइ।
हौं हुलसी निकसी सु तौ गयौ हूल-सी लाइ॥207॥

चटपटी = व्याकुता। धाइ = दौड़कर। हौं = मैं। हुलसी = उल्लास से भरकर। सु तौ = सो तो, वह तो। गयौ = गया। हूल-सी लाइ = बरछी-सी चुभोकर।

हृदय में अत्यंत व्याकुलता फैल गई। मुरली की ध्वनि सुनते ही दौड़कर (ज्यों ही) मैं उमंग से भरी बाहर निकली कि वह (मेरे हृदय में) बरछी चुभोकर चल दिया।


जौ तब होत दिखादिखी भई अभी इक आँकु।
लगै तिरीछी डीठि अब ह्वै बीछी कौ डाँकु॥208॥

तब = उस समय। अमी = अमृत। इक आँकु = निश्चय। डीठि = नजर। ह्वै = होकर। डाँकु = डंक।

उसस समय देखा देखी होने पर जो निश्चय अमृत मालूम हुई थी (वही तुम्हाारी) तिरछी नजर अब बिच्छू का डंक होकर लगती है- बिच्छू के डंक के समान व्याकुल करती है।


लाल तुम्हारे रूप की कहौ रीति यह कौन।
जासों लागैं पलकु दृग लागत पलक पलौ न॥209॥

लाल = प्यारे, नायक, नन्दलाल श्रीकृष्ण। जासौं = जिससे। पलकु = पल+एकु = एक पल। पलौ = पल भर के लिए भी।

हे लाल! तुम्हारे रूप की, बताओ, यह कौन-सी रीति है कि जिससे एक पल के लिए भी आँखें लग जाने पर-एक क्षण के लिए भी जिसे देख लेने पर-फिर पल-भर के लिए भी पलक नहीं लगती-नींद नहीं पड़ती।


अपनी गरजनु बोलियतु कहा निहोरो तोहिं।
तूँ प्यारो मो जीय कौं मो ज्यौ प्यारो मोहिं॥210॥

गरजनु = गरज से। निहोरो = उपकार, एहसान। मो = मेरे। जीय = प्राण। ज्यौं = जीव, प्राण। मोहिं = मुझे।

(मैं तुमसे) अपनी गरज से ही बोलती हूँ, इसमें तुम्हारे ऊपर मेरा कोई उपकार नहीं है, (क्योंकि) तुम मेरे प्राणों के प्यारे हो, और मेरे प्राण मुझे प्यारे हैं। (अतएव, अपने प्राणों की रक्षा के लिए ही मुझे बोलना पड़ता है।)