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"बिहारी सतसई / भाग 23 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर

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11:57, 19 मार्च 2017 के समय का अवतरण

हौं हिय रहित हई छई नई जुगुति जग जोइ।
आँखिन आँखि लगै खरी देह दूबरी होइ॥221॥

हौं = मैं। हई = आश्चर्य। छई = छाई हुई। जुगुति = युक्ति। जोइ = देखकर। आँखिन = आँखों से। खरी = अत्यन्त।

संसार में यह नई युक्ति देखकर मैं तो हृदय में आश्चर्य से छाई रहती हूँ- मेरा हृदय आश्चर्य में डूबा रहता है। आँखों से लगती हैं आँखें और अत्यन्त दुबली होती है देह।


प्रेमु अडोलु डुलै नहीं मुँह बोलैं अनखाइ।
चित उनकी मूरति बसी चितवनि माँहिं लखाइ॥222॥

अडोलु = दृढ़, अटल। अनखाई = अनखाकर, झुँझलाकर। चितवनि = आँख, नजर। लखाइ = देख पड़ती है।

प्रेम स्थिर है, वह हिलने-डुलने का नहीं-समझाने-बुझाने से छूटने का नहीं। (प्रेम छोड़ती नहीं, उलटे) मुँह से अनखाकर बोलती है। (उसके) चित्त में उनकी-नायक की-मूर्त्ति बसी है (जो) उसकी आँखों में (स्पष्ट) दीख पड़ती है - उसकी प्रेमरंजित आँखों के देखते ही प्रकट हो जाता है कि वह किसी के प्रेम में फँसी है।


चितु तरसतु न मिलतु बनत बसि परोस कैं बास।
छाती फाटी जाति सुनि टाटी ओट उसास॥223॥

उसास = उच्छ्वास, जोर-जोर से साँस लेना।

(मिलने के लिए) चित्त तरसता है, (किन्तु) पड़ोस के घर में रहकर-अत्यन्त निकट रहकर-भी मिलते नहीं बनता। टाटी की ओट से ही उसका (विरहजनित) उच्छ्वास सुनकर छाती फटी जाती है।


जाल-रंघ्र-मग अँगनु कौ कछु उजास सौ पाइ।
पीठि दिऐ जग त्यौं रह्यौ डीठि झरोखे लाइ॥224॥

जाल-रंध्र = जाली के छेद। मग = राह। उजास = उजाला। पाइ = पाकर। जग त्यों = संसार की ओर। पीठि दिये रहै = (संसार से) विमुख या उदासीन रहता है।

(झरोखे से लगी) जाली के छेदों के रास्ते से आग का कुछ उजाला-सा पाकर-जाली के छेदों से बाहर फूट निकलनेवाली तुम्हारी देह द्युति को देखकर-(उस नायक ने) संसार की ओर पीठ दे दी है-संसार को भुला दिया है (और) सदा अपनी नजर (तुम्हारे) झरोखे से लगाये रहता है।


जद्यपि सुन्दर सुघर पुनि सगुनौ दीपक-देह।
तऊ प्रकास करै तितै भरियै जितैं सनेह॥225॥

सुघर = सुघड़ = अच्छी गढ़न का। सगुनौ = गुणयुक्त और (गुण = डोरा) बत्ती सहित। तऊ = तो भी। तितैं = उतना। जितैं = जितना। सनेह = प्रेम, तेल।

यद्यपि दीपक-रूपी शरीर सुन्दर है, सुघड़ है, और फिर गुणयुक्त है (दीपक-अर्थ में-बत्ती सहित है), तो भी वह उतना ही प्रकाश करेगा, जितना उसमें प्रेम भरोगे (दीपक-अर्थ में-तेल भरोगे।)


दुचितैं चित न हलति चलति हँसति न झुकति बिचारि।
लिखत चित्र पिउ लखि चितै रही चित्र-लौं नारि॥226॥

दुचितैं चित = दुविधा में पड़ा चित्त। हलति = हिलना-डोलना। बिचारि = विचार कर। चितै = देख रही है।

प्रीतम को किसी स्त्री का चित्र बनाते हुए देखकर वह स्त्री तसवीर-सी (अचल-अटल) होकर (प्रीतम के पीछे चुपचाप खड़ी) देख रही है। सोचती है, यह मेरा चित्र बन रहा है, या किसी अन्य स्त्री का। इस दुविधा में पढ़ने से वह न आगे बढ़ती है, न हिलती-डोलती है, न हँसती है और न झुकती ही है।


नैन लगे तिहं लगनि जनि छुटैं छुटै हूँ प्रान।
काम न आवत एक हूँ तेरे सौक सयान॥227॥

सौक = सौ+एक = अनेक। सयान = चतुराई।

आँखें ऐसे (बुरे) लग्न में उनसे लगी हैं कि प्राण छूटने पर भी नहीं छूट सकतीं- (हे सखि!) तुम्हारी सैकड़ों चतुराई में एक भी काम नहीं आती- एक भी सफल नहीं होती।


साजे मोहन-मोह कौं मोहीं करत कुचैन।
कहा करौं उलटे परे टोने लोने नैन॥228॥

मोहन = श्रीकृष्ण। मोहीं मुझे ही। कुचैन = व्याकुल। टोने = जादू। लोने = लावण्यमय, सुन्दर।

(मैंने इन्हें काजल आदि से) सजाया तो मोहन को मोहने के लिए, और मुझे ही व्याकुल बनाती हैं। क्या करूँ, इन लावण्यमयी आँखों के टोने उलटे पड़ गये।

नोट - कहा जाता है कि जादू उलट जाने पर जादू चलानेवाले पर ही विपत्ति आती है। इस दोहे में यही बात खूबी से कही गई है। इस दोहे से बिहारी की तंत्रशास्त्र की जानकारी प्रकट होती है।


अलि इन लोइन-सरनि कौ खरौ बिषम संचारु।
लगै लगाऐं एक-से दुहुअनि करत सुमार॥229॥

अलि = सखी। लोइन = आँख। सरनि = वाणों। खरो = अत्यन्त। बिषम = अद्भुत। संचार = गति। अनी = बाण की नोंक। सुमार = अच्छी मार, गहरी चोट।

सखी! इन नेत्र-रूपी बाणों की गति अत्यन्त अद्भुत है। (इनकी) दोनों ओर की नोकें चोट करती हैं-(आगे की निशान मारनेवाली नोक और धनुष की डोरी से सटाकर चलानेवाली पीछे की नोक-दोनों शिकार करती हैं।) (अतएव) इनका लगना और लगाना-नेत्र-रूपी बाण चलाकर किसीको घायल करना और किसीके नेत्र-रूपी बाण से घायल होना-(दोनों) एक से (दुःखदायी ) हैं।


चख-रुचि चूरन डारि कै डग लगाइ निज साथु।
रह्यौं राखि हठि लै गयौ हथाहथी मन हाथु॥230॥

चख-रुचि = आँखों की सुन्दरता। चूरन = बुकनी, भभूत। हथाहथी = हाथों-हाथ, अति शीघ्र।

आँखों की सुन्दरता-रूपी भभूत डालकर उस ठग (नायक) ने उसे अपने साथ लगा लिया, यद्यपि (मैं) हठ करती ही रह गई- रोकती ही रह गई-(किन्तु) वह हाथों-हाथ मेरे मन को हाथ (वश) में करके चलता बना।

नोट - ठग लोग मन्त्र-पढ़ी भभूत रखते हैं, जिसपर वह भभूत डालते हैं, वह उनके पीछे लग जाता है। इस दोहे में इसीका रूपक बाँधा गया है।