"बिहारी सतसई / भाग 25 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर
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लटकि लटकि लटकतु चलतु डटतु मुकुट की छाँह।
चटक भर्यौ नटु मिलि गयौ अटक-भटक बट माँह॥241॥
लटकि लटकि लटकतु चलतु = झूमते हुए (इठलाता) चलता है। डटतु = देखता है। चटक भर्यौ = चटकीला, रँगीला। बट = बाट, रास्ता। माँह = में।
झूमते-झामते हुए चलता है, चलते हुए अपने मुकुट की परिछाहीं देखता है। वह चटकीला नट (श्रीकृष्ण), अटकते-मटकते हुए, रास्ते में (मुझसे अकस्मात) मिल गया।
फिरि फिरि बूझति कहि कहा कह्यौ साँवरे-गात।
कहा करत देखे कहाँ अली चली क्यौं बात॥242॥
कहि = कहो। कहा = क्या। अली = सखी। साँवरे-गात = श्याम, श्रीकृष्ण।
बार-बार पूछती है कि कहो, उस साँवले शरीर वाले ने (तुमसे) क्या कहा? क्या करते हुए कहाँ (तुमने उन्हें) देखा? और सखी! (मेरी) बात कैसे-कैसे चली-किस प्रकार मेरी चर्चा छिड़ी?
तो ही निरमोही लग्यौ मो ही इहैं सुभाउ।
अनआऐं आवै नहीं आऐं आवतु आउ॥243॥
ही = हृदय, मन। अनआऐं = बिना आये।
तुम्हारा मन निठुर है (उसकी संगति से) मेरे मन का भी यही स्वभाव हो गया है-वह भी निठुर हो गया है। (इसलिए) बिना (तुम्हारे) आये (मेरा मन मेरे पास) आता ही नहीं, (तुम्हारे) आने से आता है (अतएव, तुम) आओ।
नोट - प्रीतमत को बुलाने के लिए कैसा तर्क है! वाह!!
दुखहाइनु चरचा नहीं आनन आनन आन।
लगी फिर ढूका दिये कानन कानन कान॥244॥
दुखहाइन = दुःख देनेवाली। आनन = मुख। आनन = अन्य लोगों की। आन = शपथ। ढूका लगी = ढूका लगाकर, छिपकर। कानन = वन।
(इन) दुःख देनेवालियों के मुख में दूसरों की चर्चा नहीं रहती-(मैं यह बात) शपथ (खाकर कह सकती हूँ)। वन-वन में कान दिये थे ढूका लगी फिरती हैं- विहार-स्थलों के निकट छिपकर हम दोनों की गुप्त बातें सुनने के लिए कान लगाये रहती हैं।
बहके सब जिय की कहत ठौरु-कुठौरु लखैं न।
छिन औरें छिन और से ए छबि-छाके नैन॥245॥
छबि = छाके = शोभा-रूपी नशा पिये।
बहककर जी की सारी (बातें) कह देते हैं। ठौर-कुठौर-मौका-बेमौका-कुछ नहीं देखते। सौंदर्य के नशे में मस्त ये नेत्र क्षण में कुछ और हैं, और (दूसरे) क्षण में कुछ और ही से हैं-प्रति क्षण बदलते रहते हैं।
नोट - नशे में आदमी को बोलने-बतराने का शऊर नहीं रहता। प्रत्येक क्षण उसकी बुद्धि बदलती रहती है। ‘मतवाले की बहक’ प्रसिद्ध है।
कहत सबै कबि कमल-से मो मति नैन पखानु।
नतरुक कत इन बिय लगत उपजतु बिरह-कृसानु॥246॥
मो = मेरे। पखानु = पत्थर। नतरुक = नहीं तो। बिय = दो। कृसानु = आग।
सभी कवि (नेत्रों को) कमल के समान कहते हैं, (किन्तु) मेरे मत से ये (नेत्र) पत्थर ( के समान) हैं। नहीं तो इनके-दो के -लगने से (एक दूसरे की आँखों के परस्पर टकराने से) विरहरूपी आग कैसे पैदा होती?
नोट - पत्थर के परस्पर टकराने से आग पैदा होती है।
लाज-लगाम न मानही नैना मो बस नाहिं।
ए मुँहजोर तुरंग ज्यौं ऐंचत हूँ चलि जाहिं॥247॥
मो =मेरे। मुँहजोर = शोख, निरंकुश, लगाम की धाक न माननेवाला। तुरंग = घोड़ा। ज्यौं = समान। ऐंचत हूँ = खींचते रहने पर भी।
लाज-रूपी लगाम को नहीं मानते। नेत्र मेरे वश के नहीं हैं। ये मुँहजोर घोड़े की तरह (लगाम) खींचते रहने पर भी (बढ़ते ही) चले जाते हैं।
इन दुखिया अँखियानु कौं सुखु सिरज्यौई नाहिं।
देखैं बनैं न देखतै अनदेखैं अकुलाहिं॥248॥
सिरज्योई नाहिं = सृष्टि ही नहीं हुई, बनाया ही न गया। देखते = देखते हुए, देखने के समय।
इन दुखिया आँखों के लिए सुख की सृष्टि ही नहीं हुई। (अपने प्रीतम को) देखते समय (तो इनसे) देखा नहीं जाता-प्रेमानन्द से इनमें आँसू डबडबा आते हैं, फलतः देख नहीं पातीं- (और उन्हें) बिना देखे व्याकुल-सी रहती हैं।
नोट - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इस पर एक कुंडलिया यों है-
बिन देखे अकुलाहि, बावरी ह्वै ह्वै रोवैं।
उघरी उघरी फिरी, लाज तजि सब सुख खोवैं॥
देते श्रीहरिचन्द नयन भरि लखैं न सखियाँ।
कठिन प्रेमगति रहत सदा दुखिया ये अँखियाँ॥
लरिका लैबै कैं मिसनु लंगर मो ढिग आइ।
गयौ अचानक आँगुरी छाती छैलु छुवाइ॥249॥
मिसनु = बहाने से। लंगर = ढीठ। ढिग = निकट। अचानक = अकस्मात्। छाती = स्तन। छैलु = रँगरसिया नायक।
(मेरी गोद के) बच्चे को लेने के बहाने वह ढीठ मेरे निकट आया (और बच्चे को लेते समय) वह छबीला मेरी छाती में अकस्मात् अँगुली छुला गया।
नोट - इस दोहे में बिहारी ने प्रेमी और प्रेमिका के हार्दिक भावों की तस्वीर-सी खींच दी है। विदग्ध रसिक ही इस दोहे के मर्म को समझ सकते हैं।
डगकु डगति-सी चलि ठठुकि चितई सँभारि।
लिये जाति चितु चोरटी वहै गोरटी नारि॥250॥
उगकु = डग एकु = एक डेग। डगति-सी = डगती हुई-सी, डगमगाती हुई-सी। चितई = देखकर। चोरटी = चोट्टी, चुराने वाली। गोरटी = गोरी।
एक डेग डगमगाती हुई-सी चलकर ठिठक गई-ठिठककर खड़ी हो गई। (फिर मुझे) देख अपने को सँभालकर चलती बनी। वही चोट्टी गोरी-स्त्री (अपने इन प्रेमपूर्ण भावों को दिखाकर) चित्त (चुराये) लिये जाती है।