"बिहारी सतसई / भाग 27 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर
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रही लटू ह्वै लाल हौं लखि वह बाल अनूप।
कितौ मिठास दयौ दई इतै सलोनैं रूप॥261॥
लटू = लट्टू। हौं = हम। बल = नवयुवती, नायिका। सलोनैं = लावण्यमय, नमकीन। मिठास = मीठापन, माधुरी।
हे लाल! मैं उस अनुपम बाला को देखकर लट्टू हो रही हूँ-मुग्ध हो रही हूँ। ईश्वर ने इतने नमकीन रूप में-इत छोटे-से लावण्यमय शरीर में, कितनी मिठास दे दी है-कितनी माधुरी भर दी है।
सोहति धोती सेत मैं कनक-बर-न-तन बाल।
सारद-बारद-बीजुरी-भी रद कीजति लाल॥262॥
सेत = उजला। कनक = बरन = सोने का रंग। सारद = शरत् ऋतु का। बारद = बारिद = बादल। बीजुरी = बिजली। भा = आभा।
सोने कके रंग-जैसे शरीरवाली (वह) बाला उजली साड़ी में शोभ रही है। हे लाल! (उसकी यह शोभा देखकर) शरत् ऋतु के (उजले) बादल में (चमकनेवाली) बिजली की आभा को भी रद करना चाहिए-तुच्छ समझना चाहिए।
वारौं बलि तो दृगनु पर अलि खंजन मृग मीन।
आधी डीठि चितौनि जिहिं किए लाल आधीन॥263॥
बारौं = निछावर करूँ। बलि = बलैया लेना। दृगनु = आँखें। अलि = भौंरा। मीन = मछली। डीठि = नजर। चितौनि = चितवन। लाल = प्रीतम।
(मैं) बलैया (लूँ), तेरी आँखों पर भौंरा-खंनरीट, हिरन और मछली-सब को-निछावर करूँ। जिन (आँखों) ने आधी नजर की चितवन से ही प्रीतम को वश में कर लिया।
नोट - भौंरे की रसिकता और कालिमा, मृग की दीर्घनेत्रता, तथा खंजन और मीन की चंचलता से स्त्री की आँखों की उपमा दी जाती है। नवयुवती सुन्दरी नायिका की आँखें रसलुब्ध, कजरारी, बड़ी-बड़ी और चंचल होती भी हैं।
देखत उरै कपूर ज्यौं उपै जाइ जिन लाल।
छिन-छिन जाति परी खरी छीन छबीली बाल॥264॥
उरै = ओराना, चुक जाना। उपै जाइ = उड़ जाय, काफूर या गायब हो जाय। खरी = अत्यन्त। छीन = दुबली। लबीली बाल = सुन्दरी नवयुवती।
हे लाल! (मुझे भय है कि कहीं वह नायिका) कपूर के समान चुकते-चुकते उड़ न जाय। (क्योंकि तुम्हारे विरह में वह) सुन्दरी युवती क्षण-क्षण में अत्यन्त दुबली पड़ती जाती है-दुबली होती जाती है।
छिनकु छबीले लाल वह नहिं जौ लगि बतराति।
ऊख महूप पियूप की तौ लगि प्यास न जाति॥265॥
छिनुक = एक क्षण। जौ लगि = जब तक। बतराति = बातचीत करती। महूप = मधु, शहद। पियूष = अमृत।
हे छबीले लाल! एक क्षण के लिए भी वह (नायिका) जब तक बातचीत नहीं करती तब तक ऊख, मधु और अमृत की प्यास भी नहीं जाती- (ये सब पदार्थ स्वभावतः मीठे होने पर भी उसकी बोली की मिठास के इच्छुक बने रहते हैं, उसी के मधुमय वचनों से माधुर्य प्राप्त करते हैं।)
नोट - ऊख, महूप, और पीयूष (की उपमा) से नायिका के वचनों में क्रमशः मधुरता, शीतलता और प्राण-संचारिणी शक्ति का भाव व्यक्त होता है।
नागरि बिबिध बिलास तजि बसी गँवेलिनु माहिं।
मूढ़नि मैं गनिबी कि तूँ हठ्यौ दै इठलाहिं॥266॥
विलास = आमोद-प्रमोद। गँवेलिनु = गाँव की गँवार स्त्रियाँ। गनिबी = गिनी जायगी। हूठ्यौ दै = गँवारपन दिखलाकर। इठलाहि = मस्त बनी रह।
ऐ नगर में बसने वाली सुचतुरा स्त्री! नाना प्रकार के (नगर-सुलभ) आमोद-प्रमोद को छोड़कर तू इन गाँव की गँवार स्त्रियों में आ बसी है। (इसलिए अब) तू भी (उन्हीं के समान) गँवारपन दिखलाकर इठला-आनन्द प्रकट कर; नहीं तो (इन गँवारिनों द्वारा) मूर्खाओं में गिनी जाओगी-गँवारिन समझी जाओगी।
पिय मन रुचि हैबौ कठिन तन-रुचि होहु सिंगार।
लाखु करौ आँखि न बढ़ैं बढ़ैं बढ़ाऐं बार॥267॥
तन-रुचि = शरीर की शोभा। बार = बाल, केश।
प्रीतम के मन रुचि (पैदा) होना कठिन है- प्रीतम को अपनी ओर आकृष्ट कर लेना कठिन है। सिंगार से (तो केवल) शरीर की शोभा बढ़े। लाख भी (प्रयत्न) करो, किन्तु आँखें नहीं बढ़तीं। (हाँ,) बढ़ाने से बाल (अवश्य) बढ़ जाते हैं।
नोट - सिंगार से शरीर की शोभा भले ही हो, प्रीतम का मन आकृष्ट होना कठिन है, क्योंकि वह तो प्रेम से ही वशीभूत होता है।
नहिं परागु नहिं मधुर मधु नहिं बिकास इहिं काल।
अली कली ही सौं बँध्यो आगैं कौन हवाल॥268॥
परागु = फूल की सुगंधित धूलि, पुष्परज। मधु = मकरंद, पुष्परस। बिकास = खिलना। अली = भौंरा। बँध्यौ = उलझ गया है, घायल या लुब्ध हुआ है। हवाल = दशा।
न (सुगंधित) पराग है, न मीठा मकरंद, इस समय तक विकास भी नहीं हुआ-वह खिली भी नहीं। अरे भौंरा! कली से ही तो तू इस प्रकार उलझ गया, फिर आगे तेरी क्या दशा होगी-(अधखिली कली पर यह हाल है तो जब यह कली खिलेगी, सुगंधित पराग और मधुर मकरंद से भर जायगी, तब क्या दशा होगी।)
नोट - यही दोहा सुनकर मिर्जा राजा जयसिंह अपनी किशोरी रानी के प्रेम को कम कर पुनः राजकाज देखने लगे थे। इसी पर उन्होंने बिहारी को एक सौ अशर्फियाँ दी थीं, और इसी ढंग के दोहे रचने के लिए प्रत्येक दोहे पर सौ अशर्फियाँ पुरस्कार देने का उत्साह देकर यह सतसई तैयार कराई थी। इसलिए यही दोहा सतसई की रचना का मूल कारण माना जाता है।
टुनहाई सब टोल में रही जु सौति कहाइ।
सु तैं ऐंचि प्यौ आपु त्यौं करी अदोखिल आइ॥269॥
टुनहाई = जादूगरनी। टोल = टोले-महल्ले में। जु = जो। सु = वह, उसे। तैं = तुमने। ऐंचि = खींचकर, आकृष्ट कर। त्यौं = निकट, ओर। अदोखिल = दोषरहित, कलंक रहित।
समूचे टोले में (तुम्हारी) जो सौतिन (पति को अत्यन्त आकृष्ट करने के कारण) जादूगरनी कही जाती थी (कि इसने जादू करके नायक को वश में कर लिया है) उसे तुमने आकर, पति को अपनी ओर आकृष्ट कर, कलंकरहित कर दिया, (तुम्हारी सौतिन पर से जादूगरनी होने का कलंक हट गया)।
नोट - अब लोग समझ गये कि सौतिन ने अपने रूप के जादू से ही नायक को वश में किया था। तुम अधिक रूपवती हो, सो तुम्हारे आने से नायक तुम्हारे रूप पर आकृष्ट हो गया है, और उसपर से दृष्टि फेर ली है।
देखत कछु कौतिगु इतै देखौ नैकु निहाररि।
कब की इकटक डटि रही टटिया अँगुरिनु फारि॥270॥
कौतिगु = कौतुक = तमाशा। नैकु = जरा। निहारी = गौर करके। डटि रही = देख रही है। टटिया = टट्टर।
(क्या) इस ओर कुछ तमाशा देख रहे हो? (अगर नहीं देखते तो) जरा गौर से देखो- आँखें फाड़-फाड़कर देखो। (वह न जाने) कब से टट्टर को अँगुली से फाड़कर (तुम्हारी ओर) एकटक से देख रही है।