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"बिहारी सतसई / भाग 28 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर

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12:09, 19 मार्च 2017 के समय का अवतरण

लखि लोइन लोइननु कौं को इन होइ न आज।
कौन गरीब निवाजिबौ कित तूठ्यौ रतिराज॥271॥

लोइन = लावण्य, शोभा। लोइननु = आँखों। को = कौन। निवाजिबौ = कृपा होगी। कित = कहाँ। तूठ्यौ = संतुष्ट हुआ है। रतिराज = कामदेव।

इन आँखों का लावण्य देखकर आज कौन इनका नहीं हो रहेगा? कौन इन आँखों के वश में नहीं हो जायगा? (कहो, आज) किस गरीब पर कृपा होगी, कहाँ कामदेव प्रसन्न हुआ है? (कि तुम यों बनी-ठनी चली जा रही हो?)


मन न धरति मेरौ कह्यौ तूँ आपनैं सयान।
अहे परनि पर प्रेम की परहथ पारि न प्रान॥272॥

सयान = चतुराई। अहे = है। परनि = पड़ना। परहथ = दूसरे के हाथ में। पारि = डालना, देना।

तू अपनी चतुराई में (मस्त बनी) मेरा कहना मन में नहीं धरती-मेरी बात नहीं मानती। (किन्तु यह याद रख कि) दूसरे के प्रेम में पड़ना-दूसरे के प्रेम में फँसना-(अपने) प्राणों को दूसरे के हाथ में देना है, अतः (प्राण) दूसरे के हाथ में मत दे।


बहकि न इहिं बहिनापुली जब-तब बीर बिनासु।
बचै न बड़ी सबीलहूँ चील-घोंसुआ मांसु॥273॥

बहकि = बहककर, फेर में पड़कर। बहिनापुली = स्त्रियों की आपस की मैत्री। बीर = सखी। सबइील = यत्न। घोंसुआ = घोंसला, खोंता।

इस बहिनापे में मत बहको-इस कुलटा की मित्रता के धोखें में न आओ। हे सखि! जब-तब इसमें सर्वनाश (ही हुआ) है। (देखो!) बहुत यत्न करने पर भी चील के घोंसले में मांस नहीं बचता।

नोट - कोई दुष्टा स्त्री किसी भोलीभाली नवयुवती सुन्दरी से बहिनापा जोड़कर उसे बिगाड़ना चाहती है। इस पर नवयुवती सुन्दरी की प्यारी सखी उसे समझा रही है।


मैं तोसौं कैबा कह्यौ तू जिनि इन्हैं पत्याइ।
लगालगी करि लोइननु उर में लाई लाइ॥274॥

तो सौं = तुमसे। कैबा = कितनी बार। जिनि = मत। पत्याइ = प्रतीति कर। लगालगी = लग-लगाकर, एक-दूसरे से उलझकर। लोइननु = आँखें। लाई = लगा दी। लाइ = आग, लाग, सेंध।

मैंने तुमसे कई बार कहा (कि) तुम इन्हें मत पतिआओ-इनका विश्वास न करो। (किन्तु तुमने न माना, अब देखो, इन) आँखों ने लगालगी करके-मिल-मिला करके-(तुम्हारे) हृदय में आग लगा दी-तुम्हारे हृदय में चोर पहुँचने के लिए सेंध लगा दी।


सनु सूक्यौ बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखारि।
हरी-हरी अरहरि अजौं धर धरहरि जिय नारि॥275॥

सूक्यौ = सूख गया। बनौ = (बिनौला) कपास। अरहरि = अरहर; रहरी। अजौं = अब तक। धरहरि = धैर्य।

सन सूख गया, कपास भी बीत चुकी, ऊख भी उखाड़ ली गई। (यों तुम्हारे गुप्त-मिलन के सभी स्थान नष्ट हो गये, किन्तु) अब तक अरहर हरी-हरा है। (इसलिए) हे बाला! हृदय में धैर्य धारण करो (क्योंकि कम-से-कम एक गुप्त स्थान तो अभी तक कायम है।)

नोट - सन, कपास, ऊख और अरहर की खड़ी फसल वाला खेत खूब घना और गुप्त एकान्त स्थान के समान होता है। यह देहाती नायिका मालूम होती है; क्योंकि ऐसे स्थान में देहाती नायिकाएँ ही अपना मिलन-मंदिर बनाती हैं।


जौ वाके तन को दसा देख्यौ चाहत आपु।
तौ बलि नैंकु बिलोकियै चलि अचकाँ चुपचापु॥276॥

बाके = उसके। बलि = बलैया लेती है। नैंकु = जरा। बिलोकियै = देखिए। अचकाँ = अचानक। चुपचापु = चोरी-चुपके से।

यदि उसके (विरह में व्याकुल नायिका के) शरीर की (यथार्थ) दशा आप देखना चाहते हैं तो, मैं बलैया लेती हूँ, जरा चुपचाप अचानक चलकर उसे देखिए (नहीं तो आपके आगमन की बात सुनते ही वह आनन्दित हो उठेगी और आप उसकी यथार्थ अवस्था नहीं देख सकेंगे।)

नोट - उनके देखने से जो आ जाती है मुँह पर रौनक।
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है॥ -- ग़ालिब


कहा कहौं बाकी दसा हरि प्राननु के ईस।
बिरह-ज्वाल जरिबो लखैं मरिबौ भयौ असीस॥277॥

कहा = क्या। वाकी = उसकी। जरिबो = जरना। हरि = श्रीकृष्ण। लखे = देखकर। मरिबौ = मरना। भयौ = हुए।

हे प्राणों के ईश्वर श्रीकृष्ण! उसकी दशा मैं क्या कहूँ। (उसका) विरह-ज्वाला में जलना देखकर-तुम्हारे विरह में अपार कष्ट सहना देखकर-मरना ही आशीर्वाद हो गया (मृत्यु ही आशीर्वाद-सी सुखदायिनी मालूम पड़ती है)

नोट - छूट जायें गम के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खाक ऐसी जिन्दगी पर तुम कहीं औ हम कहीं॥ -- ज़ौक़


नैंकु न जानी परती यौ पर्‌यौं बिरह तनु छामु।
उठति दियैं लौं नाँदि हरि लियैं तिहारो नामु॥278॥

नैंकु = जरा। छामु = क्षाम, क्षीण, दुबला। दियैं = दीपक। लौं = समान। नाँदि उठति = प्रकाशित हो उठती है। तिहारो = तुम्हारा।

जरा भी नहीं जान पड़ती- नहीं दीख पड़ती, विरह से (उसका) शरीर यों दुबला हो गया है। हे हरि! तुम्हारा नाम लेते ही वह दीपक के समान प्रकाशित हो उठती है। (इसीसे मालूम पड़ता है कि वह वर्त्तमान है, बिलीन नहीं हुई है।)


दियौ सु सोस चढ़ाइ लै आछी भाँति अएरि।
जापैं सुखु चाहतु लियौ ताके दुखहिं न फेरि॥279॥

आछी भाँति = अच्छी तरह। अएरि = अंगीकार करके। जापैं = जिसपर, जिसके द्वारा। चाहतु = मन-चाह। ताके = उसके।

अच्छी तरह अंगीकार करके (जो कुछ उसने) दिया है, सो शीश पर चढ़ा ले-दुःख ही दिया तो क्या हुआ, उसे भी अंगीकार कर ले। जिससे मनचाहा सुख लिया, उसके (दिये हुए) दुःख को भी मत फेर-वापस न कर।


कहा लड़ैते दृग करे परे लाल बेहाल।
कहुँ मुरली कहुँ पीतपटु कहूँ मुकुट बनमाल॥280॥

कहा = कैसा। लड़ैते = लड़ाकू। लाल = नन्दलाल, श्रीकृष्ण। बेहाल = व्याकुल। कहुँ = कहीं। पीतपटु = पीताम्बर।

(तुमने अपने) नेत्रों को कैसा लड़ाकू बना लिया है? वे कैसे ऊधमी हो गये हैं? (देखो! उसकी मार से) श्रीकृष्ण व्याकुल होकर (घायल-से) पड़े हैं। कहीं मुरली (पड़ी) है, कहीं पीताम्बर (पड़ा) है, कहीं मुकुट (लुढ़क रहा) है, और कहीं बनमाला (लोट रही) है- (उन्हें किसी की सुधि नहीं।)