"बिहारी सतसई / भाग 37 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर
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निपट लजीली नवल तिय बहकि बारुनी सेइ।
त्यौं-त्यौं अति मीठी लगति ज्यौं-ज्यौं ढीठ्यो देइ॥361॥
निपट = अत्यन्त। नवल तिय = नवयुवती। बहकि = बहकावे (भुलावे) में आकर। मीठी = भली, प्यारी, लुभावनी, सुस्वादु। ढीठ्यो देह = ढिठाई दिखाती है।
अत्यन्त लजावती उस नवयुवती ने भुलावे में आकर शराब पी ली-नायक ने शर्बत आदि के बहाने उसे शराब पिला दी; सो (नशे के कारण) ज्यों-ज्यों वह (लज्जा छोड़कर) धृतष्टता (शोखी) दिखलाती है, त्यों-त्यों अत्यन्त मीठी (मनभावनी) लगती है।
बढ़त निकसि कुच-कोर-रुचि कढ़त गौर भुज-मूल।
मनु लुटिगौ लोटनु चढ़त चोंटत ऊँचे फूल॥362॥
कुच = स्तन। कोर = घेरा, किनारा, मंडल। रुचि = शोभा। भुज-मूल = बाँह का मूल-स्थान, पखौरा। लोटनु = त्रिबली, पेटी। चोंटत = चुनते (तोड़ते) समय। ऊँचे फूल = ऊँची डाल के फूल।
ऊँची डाल से फूल तोड़ते समय, (हाथ ऊँचा करने के कारण) उसके कुचमण्डल की शोभा (कंचुकी से) निकलकर बढ़ रही है, तथा (सुन्दर) गोरे पखौरे भी (कपड़े हट जाने से) बाहर निकल गये हैं। (इन शोभाओं को देखकर तो मन मुग्ध था ही कि उसकी) त्रिवली (की तीन सीढ़ियों) पर चढ़कर मन लुट गया।
नोट - ऊँचे फूल तोड़ते समय स्वभावतः, पीन कुच की कोर कंचुकी से बाहर दीख पड़ेगी, और खिंचाव के कारण वस्त्र हट जाने से पखौरे औरत्रि बली के भी दर्शन हो जायँगे। सप्तम शतक का 608 वाँ दोहा देखिए।
घाम घरीक निवारियै कलित ललित अलि-पुंज।
जमुना-तीर तमाल-तरु मिलित मालतो-कुंज॥363॥
घाम = धूप। घरीक = एक घड़ी। निवारियै = गँवाइये, बिताइये। तमाल = एक प्रकार का सुहावना श्यामल वृक्ष। मालती-कुंज = मालती-लता-मण्डप।
यमुना के तीर पर, तमाल तरु से मिलकर बनी हुई सुन्दर भौंरों से सुशोभित मालती-कुंज में, एक घड़ी धूप गँवा लीजिए।
चलित ललित स्रम स्वेदकन कलित अरुन मुख तैं न।
वन-विहार थाकी तरुनि खरे थकाए नैन॥364॥
चलित = चंचल। ललित = सुन्दर। स्रम = परिश्रम। स्वेदकन-कलित = पसीने की बूँदों शोभित। अरुन = ललाई, अत्यन्त लाल। बन-बिहार = वन में किये गये आमोद-प्रमोद। तरुनि = तरुणी, युवती।
चंचल और सुन्दर श्रम (स्वच्छन्द वन-विहार-जनित श्रान्ति) के पसीने की बूँदों वाले (गुप्त रूप से) वन में आमोद-प्रमोद करने से थकी हुई उस युवती के लाल मुखड़े से नायक की आँखें नहीं थकतीं (उसकी वह शोभा देखते-देखते नायक के नेत्र नहीं थकते।)
नोट - कविवर ‘शीतल’ ने श्रम-बिन्दु पर क्या खूब कहा है- ”मुख-सरदचंद पर स्रम-सीकर जगमगै नखत गन-जोती से, कै दल गुलाब पर शबनम के हैं कन के रूप-उदोती से, हीरे की कनियाँ मन्द लगै हैं सुधा किरन के गोती से, आया है मदन आरती को घर कनक-थार में मोती-से।“
अपनैं कर गुहि आपु हठि हिय पहिराई लाल।
नौलसिरी औरै चढ़ी बौलसिरी की माल॥265॥
गुहि = गूँथकर। आपु = आप ही, स्वयंमेव। हिय = हृदय। नौलसिरी = नवलश्री = नवीन शोभा। औरैं = विलक्षण, विचित्र, निराली। बौलसिरी = मोलिश्री, मौलसिरी का फूल।
लाल (नायक) ने अपने ही हाथों से मौलसिरी की माला गूँथकर और हठ करके स्वयं ही उस (नायक) के गले में पहनाई। (फिर तो नायक द्वारा पहनाई गई उस मौलसिरी की माला से नायिका के सुन्दर शरीर पर) और ही तरह की (अपूर्व) नवीन शोभा चढ़ (छा) गई।
लै चुभकी चलि जाति जित-जित जलकेलि अधीर।
कीजत केसरि-नीर से तित-तित के सरि-नीर॥366॥
लै चुभकी = डुबकी लगाकर। जित = जहाँ। जल-केलि = जलक्रीड़ा। केसरि-नीर = केसर मिश्रित जल। सरि-नीर = नदी का पानी।
जल-विहार में चंचल बनी नायिका डुबकी मारकर जहाँ-जहाँ चली जाती है, वहाँ-वहाँ की नदी के (स्वच्छ) जल को (अपने केसरिया रंग के शरीर की पीली प्रभा से) केसर-मिश्रित जल के समान (पीला) कर देती है।
नोट - कविवर पद्माकर की त्रिवेणी विधायिका नायिका का जल-संतरण या जल-विहार भी देखिए-”जाहिरे जागति-सी जमुना जब बूड़ैं-बहै-उमहै उहि बेनी, त्यों पदमाकर हीरो के हारनि गंग तरंगन-सी सुखदेनी; पायन के रँग सो रँगि जात सो भाँति ही भाँति सरस्वती-सेनी, तैरे जहाँ ई जहाँ वह बाल तहाँ तहाँ ताल में होत त्रिवेनी।“
छिरके नाह नवोढ़-दृग कर-पिचकी जल जोर।
रोचन रँग लाली भई विय तिय लोचन-कोर॥367॥
दोहा संख्या 368, 369 और 370 तक यहाँ जोड़ना बाकि है