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"बिहारी सतसई / भाग 38 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर

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दोहा संख्या 370 और 371 यहाँ जोड़ना बाकि है

नीठि नीठि उठि बैठि हूँ प्यौ प्यारी परभात।
दोऊ नींद भरैं खरैं गरैं लागि गिर जात॥372॥

नीठि नीठि = बड़ी मुश्किल से। प्यौ = पिय, प्रीतम। परभात = प्रभात, प्रातः। खरैं = अत्यन्त। गरैं लागि = गले लिपटकर।

प्रीतम और प्यारी (दोनों) प्रातःकाल बड़ी-बड़ी मुश्किल से उठ बैठते भी हैं। (और पुनः) दोनों अत्यन्त नींद में भरे होने के कारण (परस्पर) गले से लिपटकर (सेज पर) गिर जाते हैं।

नोट - नेवाज कवि भी एक ऐसे ही सुरति-श्रान्त दम्पति का वर्णन करते हैं-”छतिया छतिया सों लगाये दोऊ दोऊ जी में दुहूँ के समाने रहैं, गई बीत निसा पै निसा न गई नये नेह में दोऊ बिकाने रहैं; पट खोलि ‘नेवाज’ न भोर भये लखि द्योस को दोऊ सकाने रहैं, उठि जैंबे को दोऊ डराने रहैं लपटाने रहैं पट ताने रहैं।“


लाज गरब आलस उमग भरे नैन मुसुकात।
राति रमी रति देति कहि औरै प्रभा प्रभात॥373॥

गरब = अभिमान। उमग = उत्साह। राति रमी रति = रात में किया गया समागम। औरै = और ही, विचित्र, अनोखा। प्रभा = छबि-छटा।
लज्जा, अभिमान, आलस्य और उमंग से भरे (तुम्हारे) नेत्र मुसकुरा रहे हैं। प्रातः काल की (तुम्हारी) यह अनोखी छटा रात में किया गया समागम (स्पष्ट) कहे देती है।


कुंज-भवनु तजि भवनु कौं चलियै नंदकिसोर।
फूलति कली गुलाब की चटकाहट चहुँ ओर॥374॥

कुंज-भवन = वृन्दावन का केलि-मंदिर। चटकाहट = चटक+आहट = कलियों के चिटखने का शब्द। चहुँ ओर = चारों तरफ।

हे नंदकिशोर (श्रीकृष्ण जी)! कुंजभवन को छोड़कर अब घर चलिए, (क्योंकि) गुलाब की कली खिल रही है (और उसकी) चटक चारों ओर सुन पड़ रही है-(अर्थात् अब प्रातः काल हुआ, रास-विलास छोड़िये।)


नटि न सीस साबित भई लुटी सुखनु की मोट।
चुप करि ए चारी करति सारी परी सरोट॥375॥

नटि = नहीं-नहीं करना। सीस साबित भई = तेरे ऊपर प्रमाणित हो गई। मोट = मोटरी, गठरी। चारी = चुगली। सारी = साड़ी, चुनरी। सरोट = सिकुड़न, शिकन।

नहीं-नहीं मत कर। अब तेरे मत्थे यह बात साबित हो गई कि तूने सुखों की मोटरी लूटी है। चुप हो जा, तेरी ये साड़ी में पड़ी हुई सिकुड़न ही चुगली कर रही है (कि यह किसी के द्वारा रौंदी गई है-क्योंकि रति-काल में स्वभावतः साड़ी मसल जाती है।)


मो सौं मिलवति चातुरी तूँ नहिं भानति भेउ।
कहे देत यह प्रगट हों प्रगट्यौ पूस पसेउ॥376॥

मो सौं = मुझसे। मिलवति चातुरी = चतुराई भिड़ा रही है, चालाकी कर रही है। भानति = (संस्कृत ‘भन्’ = कहना) कहती है। भेउ = भेद, रहस्य। पसेउ = पसीना। प्रगट हीं = स्पष्ट, प्रत्यक्ष।

मुझसे तू चतुराई की बातें कर रही है, भेद नहीं बतलाती। किन्तु (कड़ाके का जाड़ा पड़नेवाले इस) पूस महीने में पसीना प्रगट होकर यह स्पष्ट कहे देता है (कि तू किसी के साथ समागम कर आई है।)


सही रँगीलैं रतजगैं जगी पगी सुख चैन।
अलसौहैं सौहैं कियैं कहैं हँसीहैं नैन॥377॥

रतजगैं = किसी व्रत में रात-भर जागना। अलसौंहैं = अलसाये हुए। सौंहैं = शपथ, कसम। हँसौंहैं = हँसीले।

अरी रँगीली! (तेरा कहना) सही है। (तू व्रत के) रतजगे में ही जागी है (तभी तो) सुख और चैन में पगी है-आनन्द और उत्साह में मस्त है। (और, तेरे ये) हँसीले नेत्र भी, आलस में मस्त बने, शपथ खाकर यही कह रहे हैं।

नोट - नायिका गत रात्रि के अपने समागम की बात छिपाती है, इसपर सखी चुटकी लेती है।


यौं दलमलियतु निरदई दई कुसुम सौं गातु।
करु धरि देखौ धरधरा डर कौ अजौं न जातु॥378॥

दलमलियतु = मसलना, रौंदना। दई = दैव। करु हाथ। धरधरा = धड़कना। अजौं = अभी तक। उर = हृदय।

हाय रे दई! उस निर्दयी (नायक) ने इसके फूल के ऐसे शरीर को यों मसल दिया है कि हाथ धरके देखो, अभी तक इसके हृदय से धड़कन नहीं जाती-अभी तक भय और पीड़ा से इसकी छाती धड़क रही है।


छिनकु उघारति छिनु छुवति राखति छिनकु छिपाइ।
सबु दिनु पिय-खंडित अधर दरपन देखत जाइ॥379॥

छिनकु = छिन+एकु =क्षण। अधर = ओठ। दरपन = दर्पण, आईना। क्षण में उघारनी है, क्षण में छूनी है और पुनः क्षण में छिपा रखती है (कि कोई देख न ले।) यों उसका सारा दिन प्रीतम द्वारा खंडित किये गये अधर को दर्पण में देखने ही में बीतता है।

नोट - प्रीतम ने रति-क्षण-रंग-रस-मत्त होकर चुम्बन करते समय सुकोमल अधर पर दाँत गड़ा दिये थे, जिससे वह खंडित (रदच्छत) हो गया था।


औरै ओप कनीनिकनु गनी घनी सिरताज।
मनी धनी के नेह की बनीं छनीं पट लाज॥380॥

ओप = कान्ति। कनीनिकनु = आँखों की पुतलियाँ। गनी = गिनी हैं; मानी हैं। घनी = सबों में, बहुतेरों में। मनि = मणि, तेजस्विता। घनी = प्रीतम, नायक। पट = वस्त्र।

(तुम्हारी आँखों की) पुतलियों में आज कुछ दूसरी ही कान्ति है, (इसलिए तो मैंने इन्हें) सबों में सिरताज माना है। लाज-रूपी वस्त्र से छनकर ये प्रीतम के (निर्मल) नेह की मणि बनी हुई है-यद्यपि लज्जा से ढँकी हुई है, तो भी इनसे, नायक का प्रेम, कपड़े से ढँकी हुई (दिव्य) मणि की (उज्ज्वल) आभा के समान, प्रकट हो (झलक) रहा है।