"बिहारी सतसई / भाग 43 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर
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दुरै न निघरघट्यौ दियैं ए रावरी कुचाल।
विपु-सी लागति है बुरी हँसी खिसी की लाल॥421॥
निघरघट्यौ = सफाई देना। कुचाल = दुश्चरित्रता। रावरी = आपकी। खिसी की हँसी = खिसियानपन की हँसी, बेहयाई की हँसी।
सफाई देने पर भी आपकी यह कुचाल नहीं छिप सकती। हे लाल, (आपकी) यह बेहयाई की हँसी (मुझे) विष के समान बुरी लगती है।
जिहिं भामिनि भूषनु रच्यौ चरन-महाउर भाल।
उहीं मनौ अँखियाँ रँगीं ओठनु कै रँग लाल॥422॥
जिहिं = जिसने। भामिनि = स्त्री। भाल = मस्तक। मनौ = मनो।
जिस स्त्री ने (अपने) पैरों के महावर से (तुम्हारे) मस्तक में भूषण रचा है-तुम्हारे मस्तक को भूषित किया है-हे लाल! मानो उसीने अपने ओठों के (लाल) रंग में तुम्हारी आँखें भी रँग दी हैं। (जिस मानिनी स्त्री के पैरों पड़कर तुमने मनाया है, उसीने रात-भर जगा-जगाकर तुम्हारी आँखें लाल-लाल कर दी हैं।)
नोट - ”ओठनु के रँग अँखियाँ रँगीं“ में हृदय-संवेद्य सरसता है।
चितवनि रूखे दृगनु की हाँसी बिनु मुसकानि।
मानु जनायौ मानिनी जानि लियौ पिय जानि॥423॥
रूखे = प्रेमरसहीन। दृगनु = आँखें। जानि = ज्ञान, प्रवीण।
रूखी आँखों की चितवन और बिना हँसी की मुस्कुराहट से मानिी ने अपना मान जताया और प्रवीण प्रीतम ने जान लिया-इन लक्षणों को देखकर नायिका का मान रख लिया।
बिलखी लखै खरी-खरी भरी अनख बैराग।
मृगनैंनी सैन न भजै लखि बेनी के दाग॥424॥
बिलखी = व्याकुलता से। अनख = क्रोध। बैराग = उदासीनता। सैन न भजै = शयन नहीं करती, शय्या पर नहीं जाती।
वह मृगनैनी क्रोध और उदासीनता से भरी खड़ी-खड़ी व्याकुलता के साथ देख रही है। (सुकोमल शय्या पर) वेणी का दाग देखकर शयन करने के लिए नहीं जाती-(यह समझकर कि इस पलंग पर प्रीतम ने किसी दूसरी स्त्री के साथ विहार किया है)
हँसि हँसाइ उर लाइ उठि कहि न रुखौंहैं बैन।
जकित थकित ह्वै तकि रहे तकत तिलौंछे नैन॥425॥
लाइ = लगाओ। रुखौंहैं = नीरस। जकित = स्तम्भित। तिलौंछे = तिरछे।
हँसाकर हँसो और उठकर छाती से लगा लो, यों रूखी बातें न कहो। (देखो) तुम्हारे तिरछी आँखों से देखते ही ये (प्रीतम) स्तम्भित और शिथिल से हो रहे हैं।
रस की-सी रुख ससिमुखी हँसि-हँसि बोलति बैन।
गूढ़ मानु मन क्यौं रहै भए बूढ़-रँग नैन॥426॥
रस = प्रेम। रुख = चेष्टा। गूढ़ = गुप्त, छिपा हुआ। बूढ़ = बीरबहूटी, एक लाल बरसाती कीड़ा।
यह चन्द्रवदनी प्रेम की-सी चेष्टा से हँस-हँसकर बातें करती है, उसके हृदय का मान गुप्त कैसे रह सकता है, (फलतः) आँखें बीरबहूटी के रंग की (लाल-लाल) हो उठी हैं।
मुँह मिठासु दृग चीकने भौंहैं सरल सुभाइ।
तऊ खरैं आदर खरौ खिन-खिन हियौ सकाइ॥427॥
सुभाइ = स्वभावतः। तऊ = तेरी। खरैं-खरौ = अत्यन्त। खिन-खिन = क्षण-क्षण। सकाइ = शंकित होता है।
मुँह में मिठास है-बातें मीठी हैं, आँखें चिकनी है-स्नेह-स्निग्ध हैं, और भौंहें भी स्वभावतः सीधी हैं; तो भी तुम्हें अत्यन्त आदर करते देखकर क्षण-क्षण (मेरा) हृदय बहुत डरता है (कि कहीं तुम रुष्ट तो नहीं हो-यह आदर-भाव बनावटी तो नहीं है!)
पति रितु औगुन गुन बढ़तु मानु माह कौ सीत।
जातु कठिन ह्वै अति मृदौ रवनी-मन-नवनीतु॥428॥
माह = माघ। मृदौ = कोमल भी। नवनीत = घी, नैनू, मक्खन।
मान और माघ के जाड़े में (पूरी समता है। मान में) पति का अवगुण बढ़ता है-पति के दोष दिखलाई पड़ते हैं (और माघ के जाड़े में) ऋतु का गुण बढ़ता है-शीत का वेग बढ़ता है। (मान में) अन्यन्त कोमल रमणी का चित्त भी कठोर हो जाता है, और (माघ में) अत्यन्त कोमल मक्खन भी कठोर हो जाता है।
नोट - पति अवगुन रितु के गुनन, बढ़त मान अरु सीत।
होत मान तें मन कठिन, सीत कठिन नवनीत॥-लछूलाल
कपट सतर भौहैं करीं मुख अनखौहैं बैन।
सहज हँसौहैं जानिकै सौहैं करति न नैन॥429॥
सतर = तिरछा। अनखौंहैं = क्रोधयुक्त। सहज = स्वभावतः। हँसौंहैं = हँसोड़, विनोदशील, चिर-प्रसन्न, प्रफुल्ल। सौंहैं = सामने।
छल से भौंहों को तिरछा कर लिया, और मुख से क्रोधयुक्त वचन (कहने लगी); किन्तु अपने नेत्रों को स्वभावतः हँसोड़ जानकर (नायक के) सम्मुख नहीं करती। (इस शंका से कि कहीं ये आँखें हँसकर यह बनावटी मान बिगाड़ न दें!)
सोवति लखि मन मानु धरि ढिग सोयौ प्यौ आइ।
रही सुपन की मिलनि मिलि तिय हिय सौं लपटाइ॥430॥
मन में मान धारण कर प्रियतमा को सोया देख प्रीतम (चुपचाप) उसके निकट आकर सो रहा। (इधर) प्रियतमा भी (अंग-स्पर्श से कामोद्दीपन होने के कारण) उसके हृदय से लिपटकर स्वप्न का मिलन मिलने लगी।
नोट - नायक पर नायिका क्रुद्ध थी। झूठमूठ सोने का बहाना किये पड़ी थी। नायक रहस्य समझ गया। चुपचाप उसके पास सटकर सो रहा। अब वह अपने प्रेमावेश को रोक न सकी, किन्तु खुलकर मिलने में अपनी हेठी समझ नींद की बेखबरी में ही नायक के गले से यों लिपट गई मानो स्वप्न में मिल रही हो। स्त्रियों की तरल प्रकृति का यह चित्र है।