"बिहारी सतसई / भाग 51 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर
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(सो.) आठौ जाम अछेह, दृग जु बरत बरसत रहत।
स्यौं बिजुरी ज्यौं मेह, आनि यहाँ बिरहा धर्यौ॥501॥
जाम = पहर। अछेह = निरंतर, सदा। जु = जो। बरत = जलती है। स्यौं = सहित। ज्यौं = जैसे, मानो। मेह = मेघ। आनि घर्यौ = ला रक्खा।
आठों पहर सदा आँखें जो जलती और बरसती रहती हैं-व्याकुल बनी रहतीं और आँसुओं की झड़ी लगाये रहती हैं, (सो ऐसा मालूम होता है कि) मानो बिजली-सहित मेघ को विरह ने यहाँ (आँखों में) ला रक्खा है।
नोट - एक उर्दू-कवि ने भी मेघ और बिजली को इकट्ठा कर रक्खा है- ”मुसकुराते जाते हैं कुछ मुँह से फरमाने के बाद, बिजलियाँ चमका रहे हैं मेह बरसाने के बाद।“ किन्तु सोरठे की सुष्ठुता और सरसता कुछ और ही है।
बिरह-बिपति-दिनु परत हीं तजे सुखनु सब अंग।
रहि अब लौंऽब दुखौ भए चलाचली जिय संग॥502॥
रहि अब लौंऽब = रहि अब लौं अब = अब तक रहकर अब। दुखौ = दुःख भी। चलाचली भए = चलने को तैयार हुए।
बिरह-रूपी विपत्ति के दिन आते ही सब सुखों ने मेरे शरीर को छोड़ दिया था। (बचा था केवल दुःख, सो) अब तक रहकर, अब दुःख भी जीवन के साथ-ही-साथ चलने की तैयारी करने लगा।
नोट - एक उर्दू कवि ने विपत्ति के दिन के विषय में कहा है-”कौन होता है बुरे वक्त की हालत का शरीक। मरते दम आँख को देखा है कि फिर जाती है॥“
नयैं विरह बढ़ती बिथा खरी विकल जिय बाल।
बिलखी देखि परोसिन्यौ हरखि हँसी तिहिं काल॥503॥
बिथा = व्यथा, पीड़ा। बिलखी = व्याकुल हुई।
नये वियोग की बढ़ती हुई व्यथा से उस बाला का हृदय अत्यन्त विकल था। किन्तु इतने में पड़ोसिन को भी व्याकुल देख (यह समझकर कि इसे भी मेरे पति से गुप्त प्रेम था, अतएव अब यह भी दुःख भोगेगी, ईर्ष्या से वह तत्काल ही हर्षित होकर हँसने लगी।)
छतौ नेहु कागद-हियैं भई लखाइ न टाँकु।
बिरह तचैं उघज्यौ सु अब सेहुँड़ कै सो आँकु॥504॥
छतौ = अछतौ = था। लखाइ न भई = दीख नहीं पड़ी। टाँकु = लिखावट। तचैं = तपाये जाने पर। सेहुँड़ कै सो आँकु = सेंहुड़ के दूध से लिखे गये अक्षर के समान, जो कि आग पर तपाये बिना दीख नहीं पड़ते।
कागज-रूपी हृदय पर प्रेम (लिखा हुआ) था, किन्तु उसकी लिखावट दिखाई नहीं पड़ती थी, सो अब सेंहुड़ के दूध से लिखे हुए अक्षर के समान वह विरह (रूपी आग) से तपाये जाने पर (स्पष्ट) प्रकट हो गया।
करके मीड़े कुसुम लौं गई बिरह कुम्हिलाइ।
सदा समीपिनि सखिनु हूँ नीठि पिछानी जाइ॥505॥
मीड़े = मसले या मीजे हुए। कुसुम = कोमल फूल। समीपिनि = निकट रहनेवाली। नीठि = मुश्किल से। पिछानी = पहचानी।
हाथ से मसले हुए फूल के समान विरह से कुम्हला गई है। सदा निकट रहनेवाली सखियों से भी मुश्किल से पहचानी जाती है। (अत्यन्त दुर्बलता के कारण चिरसंगिनी सखियाँ भी नहीं पहचानतीं!)
लाल तुम्हारे बिरह की अगिनि अनूप अपार।
सरसै बरसै नीर हूँ झर हूँ मिटै न झार॥506॥
अनूप = जिसकी उपमा (बराबरी) न हो, अनुपम। अपार = जिसका पार (अन्त) न हो। सरसै = सरसता है, प्रज्वलित होता है। झर = झड़ी लगना। झार = ज्वाला।
हे लाल! तुम्हारे विरह की आग अनुपम और अपरम्पार है। पानी बरसने पर (वर्षा होने पर) भी प्रज्वलित होती है, और झड़ी लगने पर (आँसुओं के गिरने पर) भी उसकी ज्वाला नहीं मिटती।
नोट - विरहिणी बेचारी को वर्षा से अधिक कष्ट होता है!
पजरै नीर गुलाब कैं पिय की बात बुझाइ॥507॥
औरै कछू = कुछ विचित्र ही। लाइ = आग। पजरै = प्रज्वलित होना। बात = (1) वचन (2) हवा, अथवा मुँह की सुगंधित साँस।
इसके हृदय में कुछ विचित्र विरह की आग लग गई है, जो गुलाब के पानी से तो प्रज्वलित हो जाती है, और प्रीतम की ‘बात’ से बुझ जाती है।
नोट - पानी से जलना और हवा से बुझ जाना निस्संदेह विचित्रता है।
मरी डरो कि टरी बिथा कहा खरी चलि चाहि।
रही कराहि-कराहि अति अब मुँहु आहि न आहि॥508॥
खरी = खड़ी। चाहि = देखो। आहि = आह। न आहि = नहीं है।
(हे सखी!) क्या खड़ी हो, चलकर देखो तो कि वह मर गई है कि डर गई है कि उसकी पीड़ा टल गई (जो वह चुप हो रही है)। अब तक तो वह अत्यन्त कराह रही थी, किन्तु अब मुख में आह भी नहीं है- आह भी नहीं सुन पड़ती है।
कहा भयौ जो बीछुरे सो मनु तो मनु साथ।
उड़ी जाउ कितहूँ गुड़ी तऊ उड़ाइक हाथ॥509॥
बीछुरे = बिछुड़ गये। मो = मेरा। तो = तेरा। कितहूँ = कहीं भी। गुड़ी = गुड्डी, पतंग। तऊ = तो भी। उड़ाइक = उड़ानेवाला, खेलाड़ी।
यदि बिछुड़ ही गये, तो क्या हुआ? मेरा मन तो तुम्हारे मन के साथ है। गुड्डी कहीं भी ड़कर जाती है, तो भी वह उड़ानेवाले (खेलाड़ी) ही के हाथ में रहती है-जब उड़ानेवाला चाहता है, उसकी डोर खींचकर निकट ले आता है। (उसी प्रकार तुम्हें भी मैं, जब चाहूँगी, अपनी प्रेम-डोर से अपनी ओर खींच लूँगी।)
नोट - ”कर छटकाये जात हो, निबल जानि कै मोहि।
हिरदै से जब जाहुगे मरद बखानौं तोहि॥“-सूरदास
जब जब वै सुधि कीजियै तब सब ही सुधि जाहिं।
आँखिनु आँखि लगी रहै आँखैं लागति नाहिं॥510॥
आँखैं लागति नाहिं = आँखें नहीं लगतीं = नींद नहीं आती।
जब-जब उन बातों की याद आती है, तब-तब सभी सुधि जाती रहती है-बिसर जाती है। उनकी आँखें मेरी आँखों से लगी रहती हैं, इसलिए मेरी आँखें भी नहीं लगतीं-मुझे नींद भी नहीं आती।
नोट - ”तनक काँकरी के परै होत महा बेचैन।
बे बपुरे कैसे जियें जिन नैनन में नैन॥“