"बिहारी सतसई / भाग 55 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिहारी |अनुवादक= |संग्रह=बिहारी स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
13:22, 19 मार्च 2017 के समय का अवतरण
तर झरसी ऊपर गरी कंजल जल छिरकाइ।
पिय पाती बिनही लिखी बाँची बिरह-बलाइ॥541॥
तर = तले, नीचे। झरसी = झुलसी हुई। गरी = गली हुई। पाती = पत्री = चिट्ठी। बाँची = पढ़ लिया। बलाइ = रोग।
(हाथ की ज्वाला से) नीचे झुलसी हुई (आँखों के आँसुओं से भींगी होने के कारण) ऊपर से गली हुई, और काजल के जल से छिड़की हुई (काले दाग से भरी हुई) बिना लिखी (प्रियतमा की) सादी चिट्ठी में ही प्रीतम ने विरह का रोग पढ़ लिया-(प्रीतम जान गया कि प्रियतमा विरह से जल रही है और आँसू बहा रही है।)
कर लै चूमि चढ़ाइ सिर उर लगाइ भुज भेंटि।
लहि पाती पिय की लखति बाँचति धरति समेटि॥542॥
कर = हाथ। उर = हृदय। भुज भेंटि = आलिंगन कर। पिय = प्रीतम। धरति समेटि = मोड़कर वा तह लगाकर यत्न से रखती है। बाँचति = पढ़ती है।
(नायिका) प्रीतम की पाती पाकर उसे हाथ में लेकर, चूमकर, सिर पर चढ़ाकर देखती है और छज्ञती से लगाकर, तथा (भुजाओं से) आलिंगन कर (बार-बार) पढ़ती और समेटकर रखती है।
मृगनैनी दृग की फरक उर उछाह तन फूल।
बिनही पिय आगम उमगि पलटन लगी दुकूल॥543॥
उछाह = उत्साह। आगम = आगमन, आना। उमगि = उमंग में आकर। पलटन लगी = बदलने लगी। दुकूल = रेशमी साड़ी, चीर।
आँख के फड़कते ही मृगनैनी (नायिका) का हृदय उत्साह से भर गया, और शरीर (आनन्द से) फूल उठा, तथा बिना प्रीतम के आये ही (अपने शुभ शकुन को सोलह-आने सत्य समझ) उमंग में आकर साड़ी बदलने लगी।
नोट - स्त्रियों के लिए बाईं आँख का फड़कना शुभ शकुन है। अतः नायिका ने अपनी बाईं आँख के फड़कते ही प्रेमावेश के कारण समझ लिया कि आज प्रीतम अवश्य आवेंगे, अतः बन-ठनकर मिलने को तैयार होने लगी।
बाम बाँहु फरकत मिलैं जौं हरि जीवनमूरि।
तौ तोहीं सौं भेंटिहौं राखि दाहिनी दूरि॥544॥
बाम = बाईं। बाँहु = बाँह, भुजा। जीवनमूरि = प्राणाधार। भेंटिहौं = भेटूँगी, भुजा भरकर मिलूँगी। दूरि = अलग।
ऐ बाईं भुजा! (तू फड़क रही है, सो) तेरे फड़कने से यदि प्राणाधार श्रीकृष्ण मिल जायँ-श्रीकृष्ण आज आ जायँ-तो दाहिनी भुजा को दूर रखकर मैं तुझी से उनका आलिंगन करूँगी। (यही तेरे फड़कने का पुरस्कार है।)
कियौ सयानी सखिनु सौं नहिं सयानु यह भूल।
दुरै दुराई फूल लौं क्यांे पिय-आगम-फूल॥545॥
सयानी = चतुराई। सयानु = चतुराई। दुरै = छिपै। लौं = समान। पिय-आगम-फूल = प्रीतम के आगमन का उत्साह।
सखियों से की गई चतुराई (वास्तविक) चतुराई नहीं, वरन् यह भूल है। प्रीतम के आगमन का उत्साह (सुगंधित) फूल के समान छिपाने से कैसे छिप सकता है?
आयौ मीत बिदेस तैं काहू कह्यौ पुकारि।
सुनि हुलसीं बिहँसीं हँसीं दोऊ दुहुनु निहारि॥546॥
मीत = मित्र = प्यारा, प्रीतम। काहू = किसी ने। हुलसीं = आनन्दित हुईं। बिहँसी = मुस्कुराई। दुहुनु = दानों को। निहारि = देखकर।
किसी ने पुकारकर कहा कि प्रीतम विदेश से आ गया। यह सुनकर आनन्दित हुई, मुस्कुराई और दोनों (नायिकाएँ) दोनों को देखकर हँस पड़ीं।
नोट - दोनों नायिकाएँ एक ही नायक से प्रेम करती थीं। किन्तु दोनों का प्रेम परस्पर अप्रकट था। आज अकस्मात् विदेश से नायक के आने की बात सुनकर दोनों स्व्भावतः प्रसन्न हुईं। तब एक दूसरी की प्रसन्नता देखकर ताड़ गइ कि यह उन्हें चाहती है। फलतः अनायास भेद खुलने के कारण दोनों परस्पर देखकर हँस पड़ीं।
मलिन देह वेई बसन मलिन बिरह कैं रूप।
पिय-आगम औरै चढ़ी आनन ओप अनूप॥547॥
वेई = वे ही। आगम = आगमन, आना। आनन = मुख। औरै = विचित्र ही, निराली ही। ओप = कान्ति। अनूप = अनुपम।
शरीर मलिन है, वे ही मलिन कपड़े हैं और विरह के कारण रूप भी मलिन है। किन्तु प्रीततम के आगमन से उसके मुख पर और ही प्रकार की अनुपम कान्ति चढ़ गई है।
कहि पठई जिय-भावती पिय आवन की बात।
फूली आँगन मैं फिरै आँग न आँग समात॥548॥
जिय-भावती = जो जी को भावे, प्राणों को प्यारी लगे। आँग = अंग, शरीर। आँग न आँग समात-बहुत हर्ष के समय में इस कहावत का प्रयोग होता है।
अपनी प्राणवल्लभा को प्रियतम ने अपने आने का सँदेसा कहला भेजा। (अतएव मारे प्रसन्नता के) वह फूली-फूली आँगन में फिर रही है, अंग-अंग में नहीं समाते।
नोट - धनुष चढ़ावत भे तबहि लखि रिपु-कृत उत्पात।
हुलसि गात रघुनाथ को बखतर में न समात॥-पद्माकर।
रहे बरोठे में मिलत पिउ प्रानन के ईसु।
आवत-आवत की भई बिधि की घरी घरी सु॥549॥
बरोठे = बाहर की बैठक। प्रानन के ईसु = प्राणेश। सु = सो, वह।
प्राणनाथ प्रीतम (परदेश से आने पर) बाहर की बैठक में ही लोगों से मिल रहे थे। (अतएव) जो एक घड़ी। (उन्हें आँगन में) आते-आते बीती, सो घड़ी (नायिका के लिए) ब्रह्या की घड़ी के समान (लम्बी) हो गई।
नोट - कितने ही युग बीत जाते हैं तब ब्रह्मा की एक घड़ी होती है।
जदपि तेज रौहाल-बल पलकौ लगी न बार।
तौ ग्वैंड़ौं घर कौ भयौ पैंड़ों कोस हजार॥550॥
रौहाल = (फा. रहबार) घोड़ा। पलकौ = एक पल की भी। बार = देर। ग्वैंड़ौं = बस्ती के आसपास की भूमि। पैंड़ों = रस्ता।
यद्यपि तेज घोड़े के कारण (नायक के आने में) एक पल-भर की भी देर न हुई, तो भी गोयँड़े से घर तक का रास्ता (उत्कंठिता नायिका को) हजार कोस (सदृश) मालूम हुआ।
नोट - नायिका ने धर की खिड़की से नायक को तेज घोड़े पर चढ़कर विदेश से आते हुए गाँव के गोयँड़े में देखा। उस गोयँड़े में देखा। उस गोयँड़े से बस्ती के अन्दर अपने घर तक आने में जो थोड़ी-सी देर हुई, वह उसे हजार वर्ष-सी जान पड़ी।