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"बिहारी सतसई / भाग 56 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर

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13:46, 19 मार्च 2017 के समय का अवतरण

बिछुरैं जिए सँकोच इहिं बोलत बनत न बैन।
दोऊ दौरि लगे हियैं किए निचौहैं नैन॥551॥

बिछुरे = जुदा हुए। जिए = मन में। निचौंहैं = नीचे की ओर।

(कैसी लज्जा की बात है कि परस्पर इतना प्रेम करने पर भी) हम दोनों बिछुड़ गये-एक दूसरे से अलग-अलग हो गये-फिर भी जीते रहे यह संकोच मन में होने के कारण वचन बोलते (बातें करते) नहीं बना। (तो भी प्रेमावेश के कारण) आँखें नीची किये दोनों दौड़कर (परस्पर) हृदय से लिपट गये।


ज्यौं-ज्यौं पावक-लपट-सी तिय हिय सौं लपटाति।
त्यौं-त्यौं छुही गुलाब-सैं छतिया अति सियराति॥552॥

पावक = आग। तिय = स्त्री। हिय =हृदय। छुही गुलाब-सैं = गुलाब-जल से सींची हुई-सी। सियराति = ठंढी होती है।

ज्यों-ज्यों आग की लपट के समान (ज्योति पूर्ण, कान्तिपूर्ण और कामाग्निपूर्ण) वह स्त्री हृदय से लिपटती है, त्यों-त्यों गुलाब-जल से छिड़की हुई के समान छाती अतयन्त ठंढी होती है।


पीठि दियैं ही नैंकु मुरि कर घूँघट-पटु टारि।
भरि गुलाल की मूठि सौं गई मूठि-सी मारि॥553॥

पीठि दियैं = मुँह फेरकर। नैंकु = जरा। मुरि = मुड़कर। कर = हाथ। पटु = कपड़ा। गुलाल = अबीर। मूठि = मुट्ठी। मूठि -वशीकरण-प्रयोग की विधि।

(मेरी ओर) पीठ किये हुए ही जरा-सा मुड़कर और हाथ से घूँघट का कपड़ा हटाकर अबीर भरी हुई मुट्ठी से (वह नायिका) मानो (वशीकरण प्रयोग की) मूठ-ही-सी मार गई-(उस अदा से मुझपर अबीर डालना क्या था, वशीकरण-प्रयोग का टोना करना था।)।

नोट - लज्जाशीला नायिका घूँघट काढ़े नायक की ओर पीठ किये खड़ी थी। नायक उसपर ताबड़तोड़ अचरी डाल रहा था। इतने में उसने भी तमक-कर कुछ मुड़कर और घूँघट को हाथ से हटाते हुए नायक पर अबीर की मूठ चला ही दी। उसी पर यह उक्ति है।


दियौ जु पिय लखि चखनु मैं खेलत फागु खियालु।
बाढ़त हूँ अति पीर सु न काढ़त बनतु गुलालु॥554॥

लखि = ताककर। चख = आँखें। खियालु = कौतुक, विनोद, चुहल। पीर = पीड़ा। सु = सो। गुलालु = अबीर।

फाग खेलते समय कौतुक (विनोद) वश प्रीतम ने ताककर उसकी आँखों में जो (अबीर) डाल दी, सो अत्यन्त पीड़ा बढ़ने पर भी उससे वह अबीर काढ़ते नहीं बनता (क्योंकि उस पीड़ा में भी एक विलक्षण प्रेमानन्द है!)


छुटत मुठिनु सँग ही छुटी लोक-लाज कुल-चाल।
लगे दुहुनु इक बेर ही चलि चित नैन गुलाल॥555॥

कुल-चाल = कुल की चाल, कुल-मर्यादा। इक बेर ही = एक साथ ही।

अबीर की मुट्ठियाँ छूटने के साथ लोक-लज्जा और कुल-मर्यादा छूट गई। एक साथ ही चलकर दोनों के हृदय, नयन और अबीर एक दूसरे से लगे-अबीर (की मूठ) चलाते समय ही दोनों के नेत्र लड़ गये और दिल एक हो गया।


जज्यौं उझकि झाँपति बदनु झुकति बिहँसि सतराइ।
तत्यौं गुलाल मुठी झुठी झझकावत प्यौ जाइ॥556॥

जज्यौं = ज्यों-ज्यों। उझकि = लचक के साथ उचककर। झाँपति = ढकती है। सतराइ = डरती है। तत्यौं = त्यों-त्यों। झझकावत = डराता है।

ज्यों-ज्यों उझककर (नायिका) मुँह ढाँपती, झुक जाती और हँसकर डरने की चेष्टा (भावभंगी) करती है, त्यों-त्यों अबीर की झूठी मुट्ठी से-बिना अबीर की (खाली) मुट्ठी चला-चलाकर-प्रीतम उसे डरवाता जाता है।


रस भिजए दोऊ दुहुनु तउ ठिकि रहे टरै न।
छबि सौं छिरकत प्रेम-रँग भरि पिचकारी नैन॥557॥

भिजए = शराबोर कर दिया। ठिकि रहे = डटे रहे।

दोनों ने दोनों को रस से शराबोर कर डाला है, तो भी दोनों अड़े खड़े हैं, टलते नहीं। (मानों फाग खेलने के बाद अब) नैन-रूपी पिचकारी में प्रेम का रंग भरकर सुन्दरता के साथ (परस्पर) छिड़क रहे हैं।


गिरै कंपि कछु कछु रहै कर पसीजि लपटाइ।
लैयौ मुठी गुलाल भरि छुटत झुठी ह्वै जाइ॥558॥

कंपि = काँपना। छुटत = छूटते ही, चलाते ही। झुठी = खाली।

कुछ तो (प्रेमावेश में) हाथ काँपने से गिर पड़ती है, और कुछ हाथ के पसीजने से उसमें लिपटी रह जाती है। मुट्ठी में अबीर भरकर तो लेती है, किन्तु चलाते ही (वह मुट्ठी) झूठी हो जाती है-नायक की देह पर अबीर पड़ती ही नहीं।


ज्यौं-ज्यौं पटु झटकति हठति हँसति नचावति नैन।
त्यौं-त्यौं निपट उदार हूँ फगुवा देत बनै न॥559॥

पटु = अंचल। झटकति = जोर से हिलाती वा फहराती है। हठति = हठ करती है। निपट = अत्यन्त। फगुवा = फाग खेलने के बदले में वस्त्राभूषण या मेवा-मिठाई आदि का पुरस्कार।

ज्यों-ज्यों वह (नायिका) कपड़े (अंचल) को झटकती है, हठ करती है, हँसती है और आँखों को नचाती है, त्यों-त्यों अत्यन्त उदार होने पर भी (इस हाव-भाव पर मुग्ध होकर, नायक से) फगुआ देते नहीं बनता।


छकि रसाल-सौरभ सने मधुर माधवी-गंध।
ठौर-ठौर झौंरत झँपत झौंर-झौंर मधु-अंध॥560॥

छकि = तृप्त या मत्त होकर। रसाल = (यहाँ) आम की मंजरी। सौरभ = सुगंध। सने = लिप्त होकर माधवी-एक प्रकार की बसन्ती लता। ठौर-ठौर। जगह-जगह, यत्र-तत्र। झँपत = मस्ती से ऊँघते हैं। झौंर = समूह। झौंरत = मँड़राते हैं।

आम की (मंजरी की) सुगन्ध से मस्त होकर, माधवी-लता की मधुर गन्ध से सने (लिप्त) हुए मदांध भौंरों के समूह जगह-जगह झूमते और झपकी लेते (फिरते) हैं-(किसी पुष्प पर गुंजार करते हैं, तो किसी पर बैठकर ऊँघने लगते हैं।)