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"बिहारी सतसई / भाग 59 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर

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13:48, 19 मार्च 2017 के समय का अवतरण

कियौ सबै जगु काम-बस जीते जिते अजेइ।
कुसुम-सरहिं सर-धनुष कर अगहनु गहन न देइ॥581॥

जिते = जितना। अजेइ = न हारने वाले, जो जीता न जा सके। कुसुम-सर = जिसका बाण फूल का हो, कामदेव। अगहनु = जाड़े का महीना; अ+गहनु = पकड़ने न देनेवाला; जाड़े के मारे हाथ ऐसे ठिठुर जाते हैं कि कोई चीज पकड़े नहीं बनती-कामदेव भी धनुष-बाण नहीं सँभाल सकता। गहन = ग्रहण करना, धारण करना।

समूचे संसार को काम के अधीन कर दिया। जितने अजेय थे, (सब को) जीत लिया। (इस प्रकार) अगहन कामदेव को हाथ में धनुष और बाण नहीं धरने देता। (वह स्वयं सबको कामासक्त बना देता है।)


मिलि बिहरत बिछुरत मरत दम्पति अति रसलीन।
नूतन बिधि हेमंत-रितु जगतु जुराफा कीन॥582॥

बिहरत = विहार करते हैं। बिछुरत = बिछुड़ते ही, एक दूसरे से अलग होते ही। दम्पति = पति और पत्नी। जुराफा = अफ्रिका देश का एक जंतु जो अपनी मादा से बिछोह होते ही मर जाता है।

अत्यन्त रस (आनन्दोपभोग) में लीन दम्पति-प्रेम में पूरे पगे पति-पत्नी-हिल-मिलकर विहार करते हैं और वियोग होते ही प्राण त्याग देते हैं। इस हेमन्त -ऋतु ने (अपनी) नवीन (शासन) व्यवस्था से सारे संसार को ही ‘जुराफा’ बना दिया। अथवा-हेमन्त-ऋतु-रूपी नवीन ब्रह्मा ने सारे संसार को जुराफा के रूप में बदल दिया-सृष्टि ही बदल दी।


आवत जात न जानियतु तेजहिं तजि सियरानु।
घरहँ-जँवाई लौं घट्यौ खरौ पूस दिन-मानु॥583॥

सियरानु = ठंढा पड़ गया है। घरहँ-जँवाई = घर-जमाई, सदा ससुराल ही में रहने वाला दामाद। लौं = समान। खरौ = अत्यन्त। मानु = (1) लमबई (2) आदर।

आते-जाते जान नहीं पड़ता-कब आया और कब गया, यह नहीं जान पड़ता; तेज को तजकर (तेजहीन होकर) ठंढ़ा पड़ गया है-‘घर-जमाई’ के समान पूस के दिन का मान अत्यन्त घट गया है।


लगत सुभग सीतल किरन निसि-सुख दिन अवगाहि।
महा ससी-भ्रम सूर त्यौं रही चकोरी चाहि॥584॥

सुभग = सुन्दर। निसि-सुख = रात का सुख। अवगाहि = प्रापत करना। माह = माघ। सूर = सूर्य। त्यौं = तरह, ओर। चाहि = देखना।

माघ-महीने में चन्द्रमा के भ्रम से चकोरी सूर्य की ओर देख रही हैं; (क्योंकि) सूर्य की किरणें भी उसे शीतल और सुन्दर लगती हैं। (इस प्रकार) रात्रि का सुख वह दिन ही में प्राप्त कर रही है।


तपन-तेज तापन-तपति तूल-तुलाई माँह।
सिसिर-सीतु क्यौंहुँ न कटैं बिनु लपटैं तिय नाँह॥585॥

तपन = सूर्य। तेज = किरण, गर्मी। तापन-तपति = आग की गर्मी। तूल-तुलाई = रुईदार (खूब मुलायम) दुलाई। माँह = में। सिसिर-सीतु = पूस-माघ की सर्दी। क्यौंहुँ = किसी प्रकार से भी। तिय = स्त्री। नाँह = पति।

स्त्री से लिपटे बिना सूर्य की किरणें, आग की गर्मी, रुईदार दुलाई से जाड़े की सर्दी किसी प्रकार भी नहीं मिटा सकती- (जाड़ा तो तभी दूर होगा जब प्यारे को छाती से लगाकर गरमायेगी।)

नोट - ”ग्वाल कवि कहैं मृगमद के धुकाय धूम ओढ़ि-ओढ़ि छार भार आगहू छपी-सी जाइ। छाके सुरा-सीसी हू न सी-सी पैं मिटेगी कभू जोलौं उकसी-सी छाती छाती सों न मीसी जाइ॥“


रहि न सकी सब जगत मैं सिसिर-सीत कैं त्रास।
गरम भाजि गढ़वै भई तिय-कुच अचल मवास॥586॥

त्रास = भय, डर। भाजि = भागकर। गढ़वै भई = किलेदारिन हो गई। अचल = दुर्गम, दृढ़। मवास = अलंघ्य, दुर्ग, किला।

शिशिर-ऋतु की सर्दी के डर से गर्मी सारे संसार में कहीं न रह सकी, (तो अन्त में) भागकर (वह) स्त्री के कुच-रूपी दुर्ग की किलेदारिन बन गई।

नोट - कविवर सेनापति कहते हैं कि सूर्य, अग्नि और रुई से अपनी रक्षा होते न देख गर्मी भागती हुई अन्त को- ”पूस मैं तिया के ऊँचे कुच कनकाचल में गढ़वै गरम भइ सीत सों लरति हैं।“


द्वैज सुधा-दीधिति कला वह लखि डीठि लगाइ।
मनों अकास अगस्तिया एकै कली लखाइ॥587॥

द्वैज = द्वितीया। सुधा-दीघिति = (अमृत-भरी किरणों वाला) चन्द्रमा। डीठि = दृष्टि। अगस्तिया = अगस्त्य नाम का वृक्ष जिसका फूल उज्ज्वल होता है।

द्वितीया के चन्द्रमा की कला को दृष्टि लगाकर (ध्यान से) वह देखो, मानो आकाश-रूपी अगस्त्य नामक वृक्ष में एक ही कली दीख पड़ती है।


धनि यह द्वैज जहाँ लख्यौ तज्यौ दृगनु दुखदंदु।
तुम भागनु पूरब उयौ अहो अपूरबु चंदु॥588॥

धनि = धन्य। जहाँ = जिसे। दुखदंदु = दुख-द्वन्द्व = दुःखसमूह।

यह द्वितीया धन्य है, जिसे देखकर आँखों को दुःख-समूह ने छोड़ दिया-जिसे देखते ही आँखों के दुःख दूर हो गये। अहा! यह अपूर्व चन्द्रमा तुम्हारे ही भाग्य से पूर्व-दिशा में उगा है।

नोट - द्वितीया के चन्द्रमा को देखने के लिए नायक अपने सखाओं के साथ कोठे पर चढ़ा। उधर उसकी प्रेमिका नायिका भी अपने कोठे पर आ गई। नायिका उसके पूरब की ओर थी। नायक-नायिका के परस्पर दर्शन के बाद एक सखा ने यह उक्ति कही।


जोन्ह नहीं यह तमु वहै किए जु जगत निकेत।
होत उदै ससि के भयौ मानहु संसहरि सेत॥589॥

जोन्ह = चाँदनी। तमु = अंधकार। निकेत = घर। ससि = चन्द्रमा। ससहरि = सिहरकर, डरकर। सेत = स्वेत = उजला।

यह चाँदनी नहीं है, यह वही अंधकार है, जिसने संसार में अपना घर कर लिया है, (तो फिर उजला क्यों है?) मानों चन्द्रमा के उदय होते ही वह सिहरकर-भयभीत होकर-उजला (फीका) पड़ गया है।

नोट - भय से चेहरा सफेद (बदरंग) हो जाता है।


रनित भृृग-घंटावली झरित दान-मधुनीरु।
मंद-मंद आवतु चल्यौ कुंजरु-कुंज-समीरु॥590॥

रनित = रणित = बजते हुए। भृंग = भौंरे। घंटावली = घंटों की कतार, बहुत-से घंटे। दान = यौवन-मदान्ध हाथी की कनपटी फोड़कर चूने वाला रस या मद। मधुनीरु = मकरंद। कुंजरु = हाथी। कुंज-समीरु = कुंज की हवा, कुंजों से होकर बहने वाली वायु जो छाया और पुड्ढ के संसर्ग से ठंढी और सुगन्धित भी होती है।

भौंरे-रूपी घंटे बज रहे हैं और मकरन्द-रूपी गज-मद झर रहा है। कुंज-समीर-रूपी हाथी मन्द-मन्द चला आ रहा है।

नोट - यह त्रिविध समीर का अतीव सुन्दर वर्णन है।