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बचपन का दृश्य याद है मुझे, अभी भी-
टँगा है मेरी आँखों में!
अँधेरी पड़े
घर के पिछवाड़े
भूतों-से फैले-खड़े इमलियों के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के बागों में
कंजरों के यायावरी चूल्हे जला करते थे
शीत के नील कुहरे में;
गीली लकड़ी कण्डों का कसैला धुआँ घुट जाता था-
चारों ओर
कभी-कभी भूँक उठते कुत्तों वाले वातावरण में!
चौथ-पाँचे का चाँद धुमैला-सा उठ आता था
छितराये तरु शिखर सीमान्तों पर
यायावरी मँजीरे के भजन सुनने-
‘एक डाल दो पंछी रे बैठ्या कुणै गुरु कुण चेला...’(एक डाल पर दो पक्षी बैठे हैं-कौन गुरु है, और कौन चेला? कदाचित् उपनिषद् के मन्त्र ‘द्वा सुपर्णा....’ का राजस्थानी लोकगीतों में गुंफित रूपान्तर)
आज मेरी साँस भी हो गयी है
उसी पुरानी कुहरिल कसैली, धुमैली-अंधी
घुटन का ही प्रतिरूप!
युग पीड़ा से!
आह, तस्कर युग!
1970