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तुमने तो कहा था-आश्वासन के स्वर में,
मेरे कान में-
सिरजनहर की उस परम सुन्दर और दिव्य सृष्टि में
तुम्हें मिलेगा-
अमृतमयी हरियालियों में जीवन-केलि-क्रीड़ा करता
स्वच्छ स्फटिक-सी पारदर्शी काया वाला
माणिक्याभ मनुष्य!
आभावान् मोतियों की किरणों की-सी झल्मल्
बोली बोलता-
सृष्टि का शृंगार
अमृतस्य पुत्रः-मानव!
पर, मिले मुझे तो यहाँ ेखने को-
आँधियों में उड़ते प्याज के छिलके से निरीह प्राणी!
बंदूक की बैटन से पिटते नंगे स्त्री-पुरुष, करते आर्त्तवाणी!
खाक़ी वर्दियाँ, बमवर्षक जहाज,
पल्टनें, आक्रमण, और युद्ध के साज़!
सृष्टि मिली-सूअरों का बाड़ा,
आदमी-खून की पौ में तैरता, पड़ा पाड़ा!
धु्रव से धु्रव तक धुआँ और लपट,
लाल आँखें, हुंकार, चिंघाड़, चुनौती और डपट!
-धोखा हुआ!
1983