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हम पर
दोपहर के सूरज के तेज में दमकते
गर्वोन्नत तेज-तर्रार पर्वत-शिखर
तने रहें-
तो क्या हम
उनके चरणों में
नीरव घाटी में-
अपने उपेक्षित एकान्त अस्तित्व की
अस्मिता थामे,
सिलाई के बीच टूट-गिरे धागे के टुकड़े-सी
छोटी-सी हिमानी का संगीत सुनती,
बच्चे की साँस-सी पवन-झकोर में टुक नाचती-सी
आत्म-रस-तृप्त
दूब की पतली-कोमल नन्ही हरी-हरी पत्ती भर बने रहें?
पर्वतीय प्रशांति का अमृत पीती
अपने ही स्वर-संगीत से जीती
फुदकनी नन्ही नील चिरैयाबन
निभूत शून्य के खेत में
प्रकाश-गर्भ अमृत के बीज ही बोते रहें?
हम ऊबड़-खाबड़ अँधेरे पाताली गड्ढों में पड़े,
आत्म-विस्मृत से, मौन रह,
चारों ओर से हमें घेरे खड़े
झाड़-झंखाड़ कंटक-गर्भित
दूर से सुन्दर-स्निग्ध-सुशील-सुनील दिखते
पर्वतों का गौरव ही अपने सिर-आँखों ढोते रहें!
1946