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उधर, अस्त हो गया दिवाकर,
इधर, प्रकट हो रहा चन्द्रमा;
ज्यों, जग-शिशु को पिला एक स्तन-
खोल रही दूसरा, प्रकृति-माँ!


धवल चाँदनी का कोमलतम-
अपना आँचल डाल रुपहला-
सुला रही चिर-पीड़ित जग को
स्नेहमयी रजनी हिमांचला!

1952