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कितना एकान्त-
हे मेरे नयन कान्त!
देखते रहते हो, निरन्तर,
टी.वी., रेडियो की टेबुल के पास से
हमारा गुजरना, आना-जाना,
इस फोटो की लकड़ी की फ्रेम में से,
इस चौखटे में से।
कुछ बोलते नहीं; बस, चिर नीरव, निस्पन्द,
निश्चल, अ-डिग।
अब बिलकुल ठुनकते नहीं, हठ नहीं, पुकार नहीं, मचलन नहीं,
सम्बोधन नहीं, मनुहार नहीं।
निर्निमेष देखते रहते हो-बिना पलक झँपाये।
कब तक इस तरह देखते ही रहोगे-
शून्य में, उजाले में, अँधेरे में, आधी रात में?
तुम्हारे पास कोई आवे या न आवे,
बोले, न बोे, अश्रु बहावे।
तुम्हें तो बस अब इसी तरह, हर समय-
चौबीसों घंटे, -सप्ताह, मास, वर्ष,
अनन्त काल तक
चौखटे में यों ही मौन जडे रह
देखने से मतलब!
देश, काल, गति, स्पर्श-संवेदन
सब बर्फ-से जम गये, ठहर गये अब!
1985