"ताज़िम अँसारी दि होलोकास्ट / अनिल अनलहातु" के अवतरणों में अंतर
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उनके चेहरे से
जैसे टपक पड़ती हो
हज़ार वर्षों की विनम्रता
या नम्रता
या की ...लाचारगी, बेचरगी, विवशता।
वे खड़े हैं यूँ
जैसे अपने होने के बोध से
खुद ही गड़े जा रहे हों शर्म से।
विगलित करुणा की प्रस्तर मूर्ति।
वे देवी प्रसाद मिश्र (1) के "" शबाना" नहीं हैं
"कलाम" भी नहीं
"मीर" और "मोमीन" भी नहीं
वे "खुसरो" और "गालिब" भी नहीं हैं।
समाज के आखरी पायदान के नीचे खड़े
अंतिम आदमी रेंधू-मुर्मू ...
ज्यों किसी संथाल, माँझी, मंडल, महतो या धीवर के
चेहरे पर चिपकी हो मुसलमानी दाढ़ी
देर तक, दूर तक...ज़ार-ज़ार रोकर चुप हुए बच्चे के
सूखे आँसुओं के लकीरों के बीच
बनता व बिगड़ता एक चेहरा...ताज़िम अँसारी।
चीखता है कोई एक
मेरे भीतर जोरों से
मैं मुसलमान होना चाहता हूँ
मैं मुसल्लह ईमान होना चाहता हूँ
मैं ताज़िम अँसारी वल्द रहमलि मियाँ होना चाहता हूँ।
ताज़िम अँसारी
—————
रहमलि मियाँ
झरी मियाँ, विनोद मियाँ, दौलत मियाँ
चरकु मियाँ
————————
इदरिस महतो, बुधु मियाँ का पड़पोता
मैं पूछता चाहता हूँ कि
बुधु मियाँ
बुधु उराँव
बुधु मुंडा
...
बुधु होर
ही
"दि होलोकास्ट" (2) का काष्ठ–शिल्प
क्यों बनाता है।
एक व्यक्ति
एक पूरे समुदाय को
उसकी पूरी परंपरा से काट देना
उनके नाम, उनकी पहचान तक छिन लेना
उन्हें उनकी ही ज़मीन से / धर्म से / आस्था से
बेदखल कर देना
कितनी बड़ी हिंसा है?
क्या यही वह होलोकास्ट नहीं है
जो उनकी चेतना में पिछले हज़ार वर्षों से
व्याप्त है?
क्या वे आदिवासी हैं
क्या वे दलित मज़दूर–किसान हैं
या मुसलमान हैं?
ताज़िम अँसारी
वल्द रहमलि मियाँ
वल्द झरी मियाँ वल्द विनोद मियाँ वल्द दौलत मियाँ
वल्द चरकु मियाँ वल्द
इदरिस महतो
क्या वे फारस से आए थे?
या तूरान, फरगना, सिस्तान से आए थे?
क्या वे समरकंद, बुखारा, तुर्किस्तान से आए थे?
श्रीनगर के पुरातात्विक स्थल बुर्ज़ाहोम (3) में
तीन हज़ार वर्ष पुरानी पिट ड्वेलर्स की सभ्यता को समझाते
मकबूल भट्ट से मकबूल बट्ट कैसे हो जाते हैं
"बहिष्कृत भारत" क्या इसी भारतवर्ष में
बहिष्कृत नहीं है?
क्या उनकी बोली में
आपको शकीरा के गयन का
आर्त्त रूदन नहीं सुन पड़ता?
नाम और पहचान मिटा देने के बाद भी
भाषा ही है
जिसे आप छिन नहीं सकते ...
दूर किसी मस्जिद से
अज़ान की आवाज़ आती है
ताज़िम अँसारी
(अपनी ही ज़मीन से बेदखल)
खेत की मेड़ों पर
नमाज़ पढ़ रहें हैं
और दिल्ली की सत्ता के गलियारों में
भिंचे सख्त चेहरे और
बल पड़े भौहों के लिए कुख्यात
एक नौकरशाह
सज़दे में झुका हुआ है
ताज़िम अँसारी के
———————
पुनश्च
न जाने किस गुनाह की माफी में
और यही वह क्षण है
जब सभ्यता और सत्ता का आभिजात्य
घुटने टेकता है
किसी ताज़िम अँसारी के सामने।
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सन्दर्भ: (1) देवी प्रसाद मिश्र की कविता " मुसलमान' यहाँ सँदर्भित है।
(2) कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल सँग्रहालय में प्रदर्शित बुधु होर का काष्ठ-शिल्प "THE HOLOCAUST" का सँदर्भ है। इसे आप www. facebook. com / anilanalhatu पर देख सकते हैं।
(3) श्री मकबूल बट्ट श्रीनगर के पुरातात्विक स्थल बुर्ज़ाहोम "जहाँ तीन हज़ार साल पहलेलोग ज़मीन में गड्ढे बनाकर रहते थें, जिसे Pit-Dwellers civilization कहते हैं, जोसँभवतःसिंधु घाटी सभ्यता से भी पुराने थी" के भारतीय पुरातात्विक सोसाईटी की ओर से तैनात अधिकारी थे। मकबूल बट्ट, ताज़िम अँसारी, बुर्ज़ाहोम आदि के विडीयो www. facebook. com / anilanalhatu पर आप देख सकते हैं।