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"बाबा / कर्मानंद आर्य" के अवतरणों में अंतर

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09:44, 30 मार्च 2017 के समय का अवतरण

तुम्हें याद कर रहा था
तुम्हारी जरुरत आन पड़ी थी
भरोसा था मन के भीतर
तुम ही निकालोगे दुःख से
पिशाच मोचन बन
काट दोगे सारे बंधन
कि अचानक तुम्हारी प्रतिमा कौंध पड़ी
जगा एक विचार
कि तुम गए ही कहाँ हो
और तुम जा भी कैसे सकते हो
तुम तो विचार में हो
और विचारों में आने वाला आदमी कभी नहीं जाता
बर्षों की स्मृतियों में हैं वे किताबें
जो खुली रहती हैं रात रात
हजारो भाषणों के कथन हैं
जो कौंधते हैं स्फुलिंग बन
मैं तुम्हें उन्हीं किताबों में ढूंढ़ता हूँ
संवैधानिक आसमान
तारे नक्षत्र और आकाश गंगाएं
चवदार तालाब का पवित्र जल
सब कुछ है...
और तुम भी...
तुम भी हो बाबा....