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"बाल काण्ड / भाग १ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
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॥श्री गणेशाय नमः ॥
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श्रीजानकीवल्लभो विजयते
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श्री रामचरित मानस
  
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प्रथम सोपान
 +
(बालकाण्ड)
  
<center><font size=1>श्रीगणेशायनमः</font></center><br>
+
श्लोक
<center><font size=1>श्रीजानकीवल्लभो विजयते</font></center><br>
+
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
<center><font size=6>श्रीरामचरितमानस</font></center><br><br>
+
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
<center><font size=4>प्रथम सोपान</font></center><br><br>
+
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
<center><font size=5>बालकाण्ड</font></center><br><br>
+
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
<span class="shloka"><br>श्लोक
+
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
<br>वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
+
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
<br>मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥१॥
+
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
<br>भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
+
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
<br>याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥
+
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
<br>वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
+
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
<br>यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥३॥
+
यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
<br>सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
+
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
<br>वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥४॥
+
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
<br>उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
+
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
<br>सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥५॥
+
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
<br>यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
+
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
<br>यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
+
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
<br>यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
+
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥7॥
<br>वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥६॥
+
 
<br>नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
+
सो0-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
<br>रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
+
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
<br>स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
+
मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
<br>भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥७॥</span>
+
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥2॥
<br>
+
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
<span class="soratha">
+
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
<br>सो०-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
+
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
<br>करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥१॥
+
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
<br>मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
+
बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
<br>जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥२॥
+
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
<br>नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
+
बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
<br>करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥३॥
+
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
<br>कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
+
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
<br>जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥४॥
+
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
<br>बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
+
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती॥
<br>महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥५॥
+
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
</span>
+
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
<br>
+
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
<span class="chaupaai">
+
दो0-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
<br>चौ०-बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
+
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
<br>अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥१॥
+
 
<br>सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
+
एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
<br>जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥२॥
+
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥
<br>श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
+
भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
<br>दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥३॥
+
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी॥
<br>उघरहिं बिमल बिलोचन हिय के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
+
सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
<br>सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥४॥
+
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥
</span>
+
जदपि कबित रस एकउ नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥
<span class="doha">
+
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा॥
<br>दो०-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
+
धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
<br>कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥१॥
+
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥
</span>
+
छं0-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥
<br>
+
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
<span class="chaupaai">
+
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी॥
<br>चौ०-गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिय दृग दोष बिभंजन॥
+
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
<br>तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥१॥
+
दो0-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
<br>बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
+
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥10(क)॥
<br>सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥२॥
+
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
<br>साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
+
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥10(ख)॥
<br>जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥३॥
+
 
<br>मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
+
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
<br>राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥४॥
+
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥
<br>बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
+
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
<br>हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥५॥
+
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥
<br>बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
+
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
<br>सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥६॥
+
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥
<br>अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥७॥
+
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
</span>
+
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
<span class="doha">
+
बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
<br>दो0-सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
+
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥
<br>लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥२॥
+
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
</span>
+
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥
<br>
+
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
<span class="chaupaai">
+
दो0-सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
<br>चौ०-मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
+
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
<br>सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥१॥
+
 
<br>बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
+
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
<br>जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥२॥
+
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
<br>मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
+
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
<br>सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥ ३॥
+
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
<br>बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
+
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
<br>सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥४॥
+
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
<br>सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
+
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
<br>बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥५॥
+
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
<br>बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
+
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
<br>सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥६॥
+
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥
</span>
+
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
<span class="doha">
+
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥
<br>दो०-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
+
दो0-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
<br>अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥३(क)॥
+
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3(क)॥
<br>संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
+
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
<br>बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥३(ख)॥
+
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥3(ख)॥
</span>
+
 
<br>
+
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
<span class="chaupaai">
+
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
<br>चौ०-बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
+
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
<br>पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥ १॥
+
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
<br>हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
+
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
<br>जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥२॥
+
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥
<br>तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
+
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
<br>उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥३॥
+
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
<br>पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
+
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
<br>बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥४॥
+
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥
<br>पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
+
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥
<br>बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥५॥
+
दो0-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
<br>बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥६॥
+
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥
</span>
+
 
<span class="doha">
+
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
<br>दो०-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
+
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
<br>जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥४॥
+
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
</span>
+
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥
<br>
+
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
<span class="chaupaai">
+
सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥
<br>चौ०-मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
+
भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
<br>बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥१॥
+
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
<br>बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
+
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥
<br>बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥२॥
+
दो0-भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
<br>उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
+
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
<br>सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥३॥
+
 
<br>भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
+
खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
<br>सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥४॥
+
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥
<br>गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥५॥
+
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
</span>
+
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥
<span class="doha">
+
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
<br>दो0-भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
+
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥
<br>सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥५॥
+
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
</span>
+
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥
<br>
+
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥
<span class="chaupaai">
+
दो0-जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
<br>चौ०-खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
+
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
<br>तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥१॥
+
 
<br>भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
+
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
<br>कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥२॥
+
काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई॥
<br>दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
+
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
<br>दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥३॥
+
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥
<br>माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
+
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
<br>कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥४॥
+
उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥
<br>सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा ॥५॥
+
किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
</span>
+
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥
<span class="doha">
+
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
<br>दो०-जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
+
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी॥
<br>संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥६॥
+
धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
</span>
+
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥
<br>
+
दो0-ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
<span class="chaupaai">
+
होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7(क)॥
<br>चौ०-अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
+
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
<br>काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥१॥
+
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7(ख)॥
<br>सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
+
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
<br>खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥२॥
+
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
<br>लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
+
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
<br>उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥३॥
+
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7(घ)॥
<br>किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
+
 
<br>हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥४॥
+
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
<br>गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
+
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
<br>साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी॥५॥
+
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
<br>धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
+
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही॥
<br>सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥६॥
+
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
</span>
+
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥
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+
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
<br>दो०-ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
+
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
<br>होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥७(क)॥
+
जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
<br>सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
+
हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥
<br>ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥७(ख)॥
+
निज कवित केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
<br>जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
+
जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥
<br>बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥७(ग)॥
+
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
<br>देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
+
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥
<br>बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥७(घ)॥
+
दो0-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
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+
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास॥8॥
<br>
+
 
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+
खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
<br>चौ०-आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
+
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥
<br>सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥१॥
+
कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
<br>जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
+
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥
<br>निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही॥२॥
+
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
<br>करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
+
हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की॥
<br>सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥३॥
+
राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
<br>मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
+
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥
<br>छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥४॥
+
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
<br>जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
+
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥
<br>हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥५॥
+
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥
<br>निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
+
दो0-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
<br>जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥६॥
+
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥9॥
<br>जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
+
 
<br>सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥७॥
+
 
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+
 
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+
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
<br>दो०-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
+
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥
<br>पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥८॥
+
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
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+
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥
<br>
+
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
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+
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥
<br>चौ०-खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
+
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
<br>हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥१॥
+
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥
<br>कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
+
जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥
<br>भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥२॥
+
दो0-जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
<br>प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
+
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥
<br>हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की॥३॥
+
 
<br>राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
+
जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
<br>कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥४॥
+
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़ें॥
<br>आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
+
बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
<br>भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥५॥
+
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥
<br>कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥६॥
+
जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
</span>
+
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥
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+
समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
<br>दो०-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
+
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
<br>सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥९॥
+
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
</span>
+
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥
<br>
+
जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
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+
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥
<br>चौ०-एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
+
दो0-सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
<br>मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥१॥
+
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥12॥
<br>भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
+
 
<br>बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥२॥
+
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
<br>सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
+
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥
<br>सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥३॥
+
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
<br>जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥
+
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥
<br>सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥४॥
+
सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
<br>धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
+
जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥
<br>भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥५॥
+
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
</span>
+
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी॥
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+
तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
<br>छं०-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥
+
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥
<br>गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
+
 
<br>प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी॥
+
दो0-अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
<br>भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
+
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥
</span>
+
 
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+
एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
<br>दो०-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
+
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥
<br>दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥१०(क)॥
+
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
<br>स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
+
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥
<br>गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥१०(ख)॥
+
जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
</span>
+
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें॥
<br>
+
होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
<span class="chaupaai">
+
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥
<br>चौ०-मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
+
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
<br>नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥१॥
+
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥
<br>तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
+
तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥
<br>भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥२॥
+
दो0-सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
<br>राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
+
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥14(क)॥
<br>कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥३॥
+
सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
<br>कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
+
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥14(ख)॥
<br>हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥४॥
+
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
<br>जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥५॥
+
बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल॥14(ग)॥
</span>
+
 
<span class="doha">
+
सो0-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
<br>दो०-जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
+
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥14(घ)॥
<br>पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥११॥
+
बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
</span>
+
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥14(ङ)॥
<br>
+
बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ।
<span class="chaupaai">
+
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥14(च)॥
<br>चौ०-जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
+
दो0-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
<br>चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥१॥
+
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥14(छ)॥
<br>बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
+
 
<br>तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥२॥
+
पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
<br>जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
+
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥
<br>ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥३॥
+
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
<br>समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
+
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके॥
<br>एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥४॥
+
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
<br>कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
+
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
<br>कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥५॥
+
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
<br>जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
+
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥
<br>समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥६॥
+
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
</span>
+
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥
<span class="doha">
+
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥
<br>दो०-सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
+
दो0-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
<br>नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥१२॥
+
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15॥
</span>
+
 
<br>
+
बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
<span class="chaupaai">
+
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥
<br>चौ०-सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
+
सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
<br>तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥१॥
+
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥
<br>एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
+
प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
<br>ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥२॥
+
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥
<br>सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
+
करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
<br>जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥३॥
+
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥
<br>गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
+
सो0-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
<br>बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी॥४॥
+
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥
<br>तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
+
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
<br>मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥५॥
+
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
</span>
+
प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
<span class="doha">
+
राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥
<br>दो०-अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
+
बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
<br>चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥१३॥
+
रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥
</span>
+
सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
<br>
+
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥
<span class="chaupaai">
+
रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
<br>चौ०-एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
+
महावीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
<br>ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥१॥
+
सो0-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।
<br>चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
+
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥
<br>कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥२॥
+
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
<br>जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
+
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥
<br>भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें॥३॥
+
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
<br>होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
+
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥
<br>जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥४॥
+
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
<br>कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
+
प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥
<br>राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥५॥
+
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की॥
<br>तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥६॥
+
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
</span>
+
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
<span class="doha">
+
राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥
<br>दो०-सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
+
दो0-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
<br>सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥१४(क)॥
+
बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥
<br>सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
+
 
<br>करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥१४(ख)॥
+
बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
<br>कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
+
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
<br>बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥१४(ग)॥
+
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
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+
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
<span class="soratha">
+
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
<br>सो०-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
+
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी॥
<br>सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥१४(घ)॥
+
हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
<br>बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
+
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥
<br>जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥१४(ङ)॥
+
दो0-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥
<br>बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ।
+
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥
<br>संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥१४(च)॥
+
 
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+
आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
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+
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
<br>दो०-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
+
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
<br>होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥१४(छ)॥
+
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥
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+
नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
<br>
+
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।
<span class="chaupaai">
+
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
<br>चौ०-पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
+
जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥
<br>मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥१॥
+
दो0-एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
<br>गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
+
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥
<br>सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥२॥
+
 
<br>कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
+
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
<br>अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥३॥
+
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
<br>सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
+
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥
<br>सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥४॥
+
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
<br>भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
+
रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
<br>जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥५॥
+
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥
<br>होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥६॥
+
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
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+
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥
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+
दो0-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
<br>दो०-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
+
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥
<br>तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥१५॥
+
 
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+
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
<br>
+
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥
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+
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
<br>चौ०-बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
+
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥
<br>प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥१॥
+
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
<br>सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
+
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
<br>बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥२॥
+
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
<br>प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
+
चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥
<br>दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥३॥
+
दो0-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
<br>करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
+
नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥
<br>जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥४॥
+
 
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+
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
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+
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥
<br>सो०-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
+
प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
<br>बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥१६॥
+
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥
</span>
+
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
<br>
+
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन धन आनँद रासी॥
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+
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
<br>चौ०-प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
+
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
<br>जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥१॥
+
दो0-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
<br>प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
+
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥
<br>राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥२॥
+
 
<br>बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
+
राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
<br>रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥३॥
+
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
<br>सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
+
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
<br>सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥४॥
+
रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी॥
<br>रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
+
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
<br>महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥५॥
+
भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥
</span>
+
दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥।
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+
निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥
<br>सो०-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
+
दो0-सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
<br>जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥१७॥
+
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥
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+
 
<br>
+
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
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+
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
<br>चौ०-कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
+
राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
<br>बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥१॥
+
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
<br>रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
+
राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
<br>बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥२॥
+
राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥
<br>सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
+
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
<br>प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥३॥
+
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥
<br>जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
+
दो0-ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
<br>ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥४॥
+
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥
<br>पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
+
मासपारायण, पहला विश्राम
<br>राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥५॥
+
 
</span>
+
नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
<span class="doha">
+
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥
<br>दो०-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
+
नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
<br>बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥१८॥
+
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
</span>
+
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
<br>
+
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥
<span class="chaupaai">
+
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
<br>चौ०-बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
+
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
<br>बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥१॥
+
दो0-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
<br>महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
+
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥
<br>महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥२॥
+
 
<br>जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
+
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
<br>सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥३॥
+
बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥
<br>हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
+
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
<br>नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥४॥
+
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन जन मीना॥
</span>
+
नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
<span class="doha">
+
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥
<br>दो०-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥
+
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
<br>राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥१९॥
+
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥
</span>
+
दो0-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
<br>
+
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥
<span class="chaupaai">
+
 
<br>चौ०-आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
+
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
<br>सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥१॥
+
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
<br>कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
+
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
<br>बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥२॥
+
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो॥
<br>नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
+
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
<br>भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥३॥
+
गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥
<br>स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
+
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
<br>जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥४॥
+
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥
</span>
+
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
<span class="doha">
+
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥
<br>दो०--एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
+
रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥
<br>तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥२०॥
+
दो0-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
</span>
+
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥28(क)॥
<br>
+
हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
<span class="chaupaai">
+
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28(ख)॥
<br>चौ०-समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
+
 
<br>नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥१॥
+
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
<br>को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥
+
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥
<br>देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥२॥
+
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
<br>रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
+
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥
<br>सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥३॥
+
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
<br>नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
+
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥
<br>अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥४॥
+
सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥
</span>
+
ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥
<span class="doha">
+
दो0-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान॥
<br>दो०-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
+
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥29(क)॥
<br>तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥२१॥
+
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
</span>
+
जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29(ख)॥
<br>
+
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
<span class="chaupaai">
+
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29(ग)॥
<br>चौ०-नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
+
 
<br>ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥१॥
+
जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
<br>जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
+
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥
<br>साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥२॥
+
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
<br>जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
+
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥
<br>राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥३॥
+
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
<br>चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
+
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥
<br>चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम  प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥४॥
+
जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
</span>
+
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥
<span class="doha">
+
दो0-मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
<br>दो०-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
+
समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30(क)॥
<br>नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥२२॥
+
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
</span>
+
किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30(ख)
<br>
+
 
<span class="chaupaai">
+
तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
<br>चौ०-अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
+
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥
<br>मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥१॥
+
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
<br>प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
+
निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥
<br>एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥२॥
+
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
<br>उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
+
रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥
<br>ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥३॥
+
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
<br>अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
+
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥
<br>नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥४॥
+
असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
</span>
+
संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥
<span class="doha">
+
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
<br>दो०-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
+
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥
<br>कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥२३॥
+
सिवप्रय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
</span>
+
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥
<br>
+
दो0- राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
<span class="chaupaai">
+
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥
<br>चौ०-राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
+
 
<br>नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥१॥
+
राम चरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
<br>राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
+
जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥
<br>रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी॥२॥
+
सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
<br>सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
+
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥
<br>भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥३॥
+
समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
<br>दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥।
+
सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥
<br>निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥४॥
+
काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
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+
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥
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+
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
<br>दो०-सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
+
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥
<br>नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥२४॥
+
अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
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+
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥
<br>
+
सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
<span class="chaupaai">
+
सेवक मन मानस मराल से। पावक गंग तंरग माल से॥
<br>चौ०-राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
+
दो0-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
<br>नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥१॥
+
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥32(क)॥
<br>राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
+
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
<br>नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥२॥
+
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥32(ख)॥
<br>राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
+
 
<br>राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥३॥
+
कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
<br>सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
+
सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथाप्रबंध बिचित्र बनाई॥
<br>फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥४॥
+
जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई॥
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+
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
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+
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
<br>दो०-ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
+
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥
<br>रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥२५॥
+
कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
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+
करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सारद रति मानी॥
<br><span class="vishraam">मासपारायण, पहला विश्राम</span>
+
दो0-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
<br>
+
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥
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+
 
<br>चौ०-नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
+
एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
<br>सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥१॥
+
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥
<br>नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
+
सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
<br>नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥२॥
+
संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥
<br>ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
+
नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
<br>सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥३॥
+
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥
<br>अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
+
असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
<br>कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥४॥
+
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥
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+
दो0-मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
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जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥34॥
<br>दो०-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
+
 
<br>जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥२६॥
+
दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
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+
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारद बिमलमति॥
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+
राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
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+
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहि संसारा॥
<br>चौ०-चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
+
सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
<br>बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥१॥
+
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥
<br>ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
+
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
<br>कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥२॥
+
मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई॥
<br>नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
+
रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
<br>राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥३॥
+
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥
<br>नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
+
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
<br>कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥४॥
+
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥
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+
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥
<span class="doha">
+
दो0-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
<br>दो०-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
+
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥
<br>जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥२७॥
+
 
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+
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
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+
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥
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+
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
<br>चौ०-भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
+
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥
<br>सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥१॥
+
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
<br>मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
+
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥
<br>राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥२॥
+
सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
<br>लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
+
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
<br>गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥३॥
+
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥
<br>सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
+
दो0-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
<br>साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥४॥
+
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥
<br>सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
+
 
<br>यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥५॥
+
सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
<br>रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥६॥
+
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥
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+
राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
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+
पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥
<br>दो०-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
+
छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
<br>उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥२८(क)॥
+
अरथ अनूप सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥
<br>हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
+
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
<br>साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥२८(ख)॥
+
धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥
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+
अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
<br>
+
नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥
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+
सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥
<br>चौ०-अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
+
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥
<br>समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥१॥
+
भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
<br>सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
+
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना॥
<br>कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥२॥
+
औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥
<br>रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
+
दो0-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
<br>जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥३॥
+
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥
<br>सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥
+
 
<br>ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥४॥
+
जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
</span>
+
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥
<span class="doha">
+
अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
<br>दो0-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान॥
+
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥
<br>तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥२९(क)॥
+
तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
<br>राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
+
आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥
<br>जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥२९(ख)॥
+
कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
<br>एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
+
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥
<br>बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥२९(ग)॥
+
बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥
</span>
+
दो0-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
<br>
+
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥
<span class="chaupaai">
+
 
<br>चौ०-जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
+
जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥
<br>कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥१॥
+
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥
<br>संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
+
करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
<br>सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥२॥
+
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥
<br>तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
+
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
<br>ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥३॥
+
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥
<br>जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
+
ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥
<br>औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥४॥
+
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥
</span>
+
अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
<span class="doha">
+
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥
<br>दो०-मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
+
चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
<br>समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥३०(क)॥
+
सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥
<br>श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
+
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥
<br>किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥३०(ख)
+
दो0-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
</span>
+
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥
<br>
+
 
<span class="chaupaai">
+
रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
<br>चौ०-तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
+
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥
<br>भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥१॥
+
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
<br>जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
+
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी॥
<br>निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥२॥
+
मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
<br>बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
+
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥
<br>रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥३॥
+
उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
<br>रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
+
रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥
<br>सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥४॥
+
दो0-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
<br>असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
+
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग॥40॥
<br>संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥५॥
+
 
<br>जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
+
सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
<br>रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥६॥
+
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥
<br>सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
+
सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
<br>सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥७॥
+
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥
</span>
+
सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
<span class="doha">
+
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥
<br>दो०- राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
+
राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा॥
<br>तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥३१॥
+
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥
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+
दो0-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।
<br>
+
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥
<span class="chaupaai">
+
 
<br>चौ०-राम चरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
+
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
<br>जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥१॥
+
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥
<br>सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
+
बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
<br>जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥२॥
+
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥
<br>समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
+
बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
<br>सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥३॥
+
राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥
<br>काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
+
सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
<br>अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥४॥
+
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥
<br>मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
+
दो0- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
<br>हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥५॥
+
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥
<br>अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
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<br>सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥६॥
+
आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
<br>सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
+
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥
<br>सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तंरग माल से॥७॥
+
राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानौ॥
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+
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥
<span class="doha">
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काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
<br>दो०-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
+
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥
<br>दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥३२(क)॥
+
जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
<br>रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
+
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी॥
<br>सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥३२(ख)॥
+
दो0-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ।
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+
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43(क)॥
<br>
+
 
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+
अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
<br>चौ०-कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
+
कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद॥43(ख)॥
<br>सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥१॥
+
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
<br>जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई॥
+
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥
<br>कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥२॥
+
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
<br>रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
+
देव दनुज किंनर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
<br>नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥३॥
+
पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
<br>कलप भेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
+
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥
<br>करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥४॥
+
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
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+
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥
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+
दो0-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
<br>दो०-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
+
 
<br>सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥३३॥
+
कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥44॥
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+
 
<br>
+
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
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+
प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥
<br>चौ०-एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
+
एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
<br>पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥१॥
+
जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥
<br>सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
+
सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
<br>संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥२॥
+
करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥
<br>नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
+
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरें॥
<br>जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥३॥
+
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥
<br>असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
+
दो0-संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
<br>जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥४॥
+
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥45॥
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+
 
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+
अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
<br>दो०-मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
+
रास नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥
<br>जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥३४॥
+
संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
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+
आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥
<br>
+
सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
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+
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
<br>चौ०-दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
+
एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
<br>नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारद बिमल मति॥१॥
+
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा॥
<br>राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
+
दो0-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
<br>चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा॥२॥
+
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥
<br>सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
+
 
<br>बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥३॥
+
जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
<br>रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
+
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
<br>मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई॥४॥
+
राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी॥
<br>रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
+
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥
<br>त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥५॥
+
तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
<br>रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
+
महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥
<br>तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥६॥
+
रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
<br>कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥७॥
+
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥
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+
दो0-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
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+
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
<br>दो०-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
+
 
<br>अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥३५॥
+
एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
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+
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥
<br>
+
रामकथा मुनीबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
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+
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥
<br>चौ०-संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
+
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
<br>करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥१॥
+
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥
<br>सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
+
तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
<br>बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥२॥
+
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥
<br>लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
+
दो0-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
<br>प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥३॥
+
गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48(क)॥
<br>सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
+
 
<br>मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥४॥
+
सो0-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ॥
<br>भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥५॥
+
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48(ख)॥
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+
रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
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+
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥
<br>दो०-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
+
एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा॥
<br>तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥३६॥
+
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥
</span>
+
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
<br>
+
मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
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+
बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
<br>चौ०-सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
+
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें॥
<br>रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥१॥
+
दो0-अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
<br>राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
+
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
<br>पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥२॥
+
 
<br>छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
+
संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा॥
<br>अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥३॥
+
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी॥
<br>सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
+
जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
<br>धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥४॥
+
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
<br>अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
+
सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
<br>नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥५॥
+
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
<br>सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥
+
तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधमा॥
<br>संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥६॥
+
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥
<br>भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
+
दो0-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
<br>सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना॥७॥
+
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद॥ 50॥
<br>औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥८॥
+
</poem>
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+
<span class="doha">
+
<br>दो०-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
+
<br>माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥३७॥
+
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+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
+
<br>सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥१॥
+
<br>अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
+
<br>संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥२॥
+
<br>तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
+
<br>आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥३॥
+
<br>कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
+
<br>गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥४॥
+
<br>बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥५॥
+
</span>
+
<span class="doha">
+
<br>दो०-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
+
<br>तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥३८॥
+
</span>
+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥
+
<br>जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥१॥
+
<br>करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
+
<br>जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥२॥
+
<br>सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
+
<br>सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥३॥
+
<br>ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥
+
<br>जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥४॥
+
<br>अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
+
<br>भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥५॥
+
<br>चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
+
<br>सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥६॥
+
<br>नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥७॥
+
</span>
+
<span class="doha">
+
<br>दो०-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
+
<br>संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥३९॥
+
</span>
+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
+
<br>सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥१॥
+
<br>जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
+
<br>त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी॥२॥
+
<br>मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
+
<br>बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥३॥
+
<br>उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
+
<br>रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥४॥
+
</span>
+
<span class="doha">
+
<br>दो०-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
+
<br>नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग॥४०॥
+
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+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
+
<br>नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥१॥
+
<br>सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
+
<br>घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥२॥
+
<br>सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
+
<br>कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥३॥
+
<br>राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा॥
+
<br>काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥४॥
+
</span>
+
<span class="doha">
+
<br>दो०-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।
+
<br>कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥४१॥
+
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+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
+
<br>हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥१॥
+
<br>बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
+
<br>ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥२॥
+
<br>बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
+
<br>राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥३॥
+
<br>सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
+
<br>भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥४॥
+
</span>
+
<span class="doha">
+
<br>दो०- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
+
<br>भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥४२॥
+
</span>
+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
+
<br>अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥१॥
+
<br>राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
+
<br>भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥२॥
+
<br>काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
+
<br>सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥३॥
+
<br>जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
+
<br>तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी॥४॥
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<br>दो०-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ।
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<br>सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥४३(क)॥
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<br>अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
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<br>कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद॥४३(ख)॥
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<br>चौ०-भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
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<br>तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥१॥
+
<br>माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
+
<br>देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥२॥
+
<br>पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
+
<br>भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥३॥
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<br>तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
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<br>मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥४॥
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<br>दो०-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
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<br>कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥४४॥
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<br>चौ०-एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
+
<br>प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥१॥
+
<br>एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
+
<br>जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥२॥
+
<br>सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
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<br>करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥३॥
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<br>नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
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<br>कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥४॥
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<br>दो०-संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
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<br>होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥४५॥
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<br>चौ०-अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
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<br>राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥१॥
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<br>संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
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<br>आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥२॥
+
<br>सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
+
<br>रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥३॥
+
<br>एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
+
<br>नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा॥४॥
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<br>दो०-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
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<br>सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥४६॥
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<br>चौ०-जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
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<br>जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥१॥
+
<br>राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
+
<br>चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥२॥
+
<br>तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
+
<br>महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥३॥
+
<br>रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
+
<br>ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥४॥
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+
<br>दो०-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
+
<br>भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥४७॥
+
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<br>चौ०-एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
+
<br>संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥१॥
+
<br>रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
+
<br>रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥२॥
+
<br>कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
+
<br>मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥३॥
+
<br>तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
+
<br>पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥४॥
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+
<br>दो०-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
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<br>गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥४८(क)॥
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<br>सो०-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ॥
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<br>तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥४८(ख)॥
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<br>चौ०-रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
+
<br>जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥१॥
+
<br>एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा॥
+
<br>लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥२॥
+
<br>करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
+
<br>मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥३॥
+
<br>बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
+
<br>कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें॥४॥
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<br>दो०-अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
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<br>जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥४९॥
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+
<br>चौ०-संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥
+
<br>भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥१॥
+
<br>जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
+
<br>चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥२॥
+
<br>सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
+
<br>संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥३॥
+
<br>तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
+
<br>भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥४॥
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<br>दो०-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।  
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<br>सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥५०॥
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11:20, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

॥श्री गणेशाय नमः ॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरित मानस

प्रथम सोपान
(बालकाण्ड)

श्लोक
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥7॥

सो0-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥2॥
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
दो0-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥
भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी॥
सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥
जदपि कबित रस एकउ नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा॥
धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥
छं0-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी॥
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
दो0-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥10(क)॥
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥10(ख)॥

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
दो0-सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥
दो0-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3(क)॥
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥3(ख)॥

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥
दो0-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥
भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥
दो0-भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥

खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥
दो0-जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥

अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई॥
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥
किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी॥
धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥
दो0-ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7(क)॥
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7(ख)॥
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7(घ)॥

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही॥
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥
निज कवित केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥
दो0-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास॥8॥

खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥
कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की॥
राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥
दो0-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥9॥



मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥
जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥
दो0-जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़ें॥
बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥
जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥
समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥
जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥
दो0-सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥12॥

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥
सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी॥
तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥

दो0-अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥

एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥
जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें॥
होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥
तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥
दो0-सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥14(क)॥
सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥14(ख)॥
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल॥14(ग)॥

सो0-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥14(घ)॥
बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥14(ङ)॥
बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥14(च)॥
दो0-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥14(छ)॥

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके॥
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥
दो0-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15॥

बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥
सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥
प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥
सो0-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥
बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥
सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥
रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महावीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
सो0-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥
दो0-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥

बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी॥
हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥
दो0-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥

आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥
नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥
दो0-एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥

समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥
दो0-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥
दो0-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥
प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन धन आनँद रासी॥
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
दो0-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥

राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी॥
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥
दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥।
निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥
दो0-सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥

राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥
दो0-ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥
मासपारायण, पहला विश्राम

नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥
नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
दो0-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन जन मीना॥
नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥
दो0-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो॥
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥
रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥
दो0-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥28(क)॥
हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28(ख)॥

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥
सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥
दो0-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान॥
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥29(क)॥
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29(ख)॥
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29(ग)॥

जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥
जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥
दो0-मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30(क)॥
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30(ख)

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥
असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥
सिवप्रय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥
दो0- राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥

राम चरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥
सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥
समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥
काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥
अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥
सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
सेवक मन मानस मराल से। पावक गंग तंरग माल से॥
दो0-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥32(क)॥
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥32(ख)॥

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथाप्रबंध बिचित्र बनाई॥
जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥
कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सारद रति मानी॥
दो0-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥

एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥
सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥
नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥
असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥
दो0-मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥34॥

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारद बिमलमति॥
राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहि संसारा॥
सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई॥
रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥
दो0-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥

संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥
सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥
दो0-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥

सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥
राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥
छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥
अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥
सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥
भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना॥
औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥
दो0-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥

जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥
अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥
तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥
कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥
बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥
दो0-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥
करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥
ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥
अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥
चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥
दो0-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥

रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी॥
मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥
उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥
दो0-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग॥40॥

सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥
सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥
सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥
राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा॥
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥
दो0-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥
बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥
बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥
सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥
दो0- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥

आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥
राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानौ॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥
जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी॥
दो0-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43(क)॥

अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद॥43(ख)॥
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥
दो0-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।

कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥44॥

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥
एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥
सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥
दो0-संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥45॥

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
रास नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥
संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥
सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा॥
दो0-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥

जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥
तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥
रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥
दो0-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥

एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥
रामकथा मुनीबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥
तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥
दो0-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48(क)॥

सो0-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ॥
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48(ख)॥
रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥
एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें॥
दो0-अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥

संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी॥
जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधमा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥
दो0-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद॥ 50॥